Monday 5 December 2016

अशोक चक्रधर

प्रस्तावना
किसी कविता के लिये पहली शर्त भले उसका कविता होना हो, लेकिन मंचीय-कविता के माध्यम से विकसित कविता के बाज़ार में भी यही शर्त लागू हो, ऐसा नहीं है. एक अनुमान के अनुसार देश भर में बारह सौ मंचीय कवियों की फ़ौज और डेढ़ सौ करोड़ की इस ‘कवि-सम्मेलन इंडस्ट्री’ में जमे रहने के लिए अब कविता की समझ, संवेदना और हुनर बिलकुल नहीं चाहिए. अगर कुछ चाहिए तो जोड़-तोड़, ख़ेमेबाज़ी और ओढ़े गए आत्मविश्वास के साथ बला की नौटंकी. इधर देश भर में एक बड़ा वर्ग है जिसके लिये कविता का अर्थ मंच की कविता ही है. इस वर्ग की नज़र में अशोक चक्रधर सुरेंद्र शर्मा सरीखे रचनाकार और सबसे बड़े कवि हैं. यह भोला वर्ग उन गजानन माधव मुक्तिबोध को नहीं जानता, जिनकी कविताओं पर अशोक चक्रधर ने डॉक्टरेट की उपाधि पाई है! अशोक चक्रधर हिंदी के जाने-माने कवि और लेखक हैं. साहित्य की दुनिया में इन्होंने हास्य-व्यंग्यात्मक रचनाओं के जरिए अपनी अलग पहचान बनाई है. बस यूं समझ लीजिए कि जिंदगी के हर मोड़ पर उठते तनावपूर्ण सवालों के मुस्कुराते जवाब हैं अशोक चक्रधर! डॉ॰ अशोक चक्रधर' ८ फ़रवरी सन् १९५१) हिंदी के विद्वान, कवि एवं लेखक है।[हास्य-व्यंग्य के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट प्रतिभा के कारण प्रसिद्ध वे कविता की वाचिक परंपरा का विकास करने वाले प्रमुख विद्वानों में से भी एक है। टेलीफ़िल्म लेखक-निर्देशक, वृत्तचित्र लेखक निर्देशक, धारावाहिक लेखक, निर्देशक, अभिनेता, नाटककर्मी, कलाकार तथा मीडिया कर्मी के रूप में निरंतर कार्यरत अशोक चक्रधर जामिया मिलिया इस्लामिया में हिंदी व पत्रकारिता विभाग में प्रोफेसर के पद से सेवा निवृत्त होने के बाद संप्रति केन्द्रीय हिंदी तथा हिन्दी अकादमी, दिल्ली के उपाध्यक्ष पद पर कार्यरत हैं। 2014 में उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया गया।
जीवन परिचय-
अशोक चक्रधर जी अशोक चक्रधर जी का जन्म ८ फ़रवरी, सन १९५१ में खु्र्जा (उत्तर प्रदेश) के अहीरपाड़ा मौहल्ले में हुआ। उनके पिताजी डॉ॰ राधेश्याम 'प्रगल्भ' अध्यापक, कवि, बाल साहित्यकार और संपादक थे।[5] उन्होंने 'बालमेला' पत्रिका का संपादन भी किया। उनकी माता कुसुम प्रगल्भ गृहणी थीं। बचपन से ही विद्यालय के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने में उनकी रुचि थी। बचपन से ही उन्हें अपने कवि पिता का साहित्यिक मार्गदर्शन मिला और उनके कवि-मित्रों की गोष्ठियों के माध्यम से उन्हें कविता लेखन की अनौपचारिक शिक्षा मिली। सन १९६० में उन्होंने रक्षामंत्री 'कृष्णा मेनन' को अपनी पहली कविता सुनाई।
सन १९६२ में सोहन लाल द्विवेदी की अध्यक्षता में अपने पिता द्वारा आयोजित एक कवि सम्मेलन अशोक चक्रधर ने अपने मंचीय जीवन की पहली कविता पढ़कर पं.सोहनलाल द्विवेदी जी का आशीर्वाद प्राप्त किया। साहित्यिक अभिरुचि के साथ-साथ अपनी पढ़ाई के प्रति भी अशोक चक्रधर काफ़ी सतर्क रहे। सन् १९७० में उन्होंने बी. ए. प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण किया। 1968 में वे मथुरा में आकाशवाणी केन्द्र में ऑडिशंड आर्टिस्ट के रूप में चुने गए। 1972 में उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से हिंदी में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में एम. लिट्. में प्रवेश लिया। इसी बीच 1972 में उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में प्रध्यापक पद पर नियुक्त मिल गई। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में इन दिनों अनेक गुणात्मक परिवर्तन हुए। उनकी पहली पुस्तक मैकमिलन से 'मुक्तिबोध की काव्य प्रक्रिया' 1975 में प्रकाशित हुई। जोधपुर विश्वविद्यालय ने इस पुस्तक को युवा लेखन द्वारा लिखी गई वर्ष की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक का पुरस्कार दिया। 1975 में उन्होंने जामिया मिल्लिया इस्लामिया में प्राध्यापक के पद पर कार्य प्रारंभ किया, जहाँ वे २००८ तक कार्यरत रहे। उन्होंने प्रौढ़ एवं नवसाक्षरों के लिए विपुल लेखन, नाटक, अनुवाद, कई चर्चित धारावाहिकों, वृत्त चित्रों का लेखन निर्देशन करने के अलावा कंप्यूटर में हिंदी के प्रयोग को लेकर भी महत्वपूर्ण काम किया है।
वे जननाट्य मंच के संस्थापक सदस्य भी हैं। इनका नाटक बंदरिया चली ससुराल नाटक का नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा द्वारा मंचन हो चुका है। इसके निर्देशक श्री राकेश शर्मा तथा रंगमंडल, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय है। और श्री रंजीत कपूर के नाटक 'आदर्श हिन्दू होटल' एवं 'शॉर्टकट' के लिए गीत लेखन भी इन्होंने किया। अशोक चक्रधर ने हिन्दी के विकास में कम्प्यूटर की भूमिका विषयक शताधिक पावर-पाइंट प्रस्तुतियां की हैं और ये हिन्दी सलाहकार समिति, ऊर्जा मंत्रालय, भारत सरकार तथा हिमाचल कला संस्कृति और भाषा अकादमी, हिमाचल प्रदेश सरकार, शिमला के भूतपूर्व सदस्य रह चुके है। वे साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षिक उद्देश्यों के लिए विश्व भ्रमण करते रहे हैं।
प्रकाशित कृतियाँ-
कविता संग्रह- बूढ़े बच्चे, सो तो है, भोले भाले, तमाशा, चुटपुटकुले, हंसो और मर जाओ, देश धन्या पंच कन्या, ए जी सुनिए, इसलिये बौड़म जी इसलिये, खिड़कियाँ, बोल-गप्पे, जाने क्या टपके, चुनी चुनाई, सोची समझी, जो करे सो जोकर, मसलाराम!
फिल्म एवं दूरदर्शन-
महत्त्वपूर्ण दूरदर्शन कार्यक्रम- नई सुबह की ओर, रेनबो फैण्टेसी, कृति में चमत्कृत, हिन्दी धागा प्रेम का, अपना उत्सव, भारत महोत्सव। अभिनय- अशोक चक्रधर ने डीडी-1 के धारावाहिक बोल बसंतो तथा सोनी एंटरटेनमेंट चैनल (भारत) के धारावाहिक छोटी सी आशा में अभिनय किया है।
फिल्म निर्माण-
जीत गई छन्नो, मास्टर दीपचंद (प्रौढ़ शिक्षा निदेशालय, भारत सरकार), झूमे बाला झूमे बाली (दिल्ली दूरदर्शन केन्द्र), गुलाबड़ी (दिल्ली महानिदेशालय), हाय मुसद्दी, तीन नजारे (ई टी एंड टी, भारत सरकार) बिटिया (एन एफ डी सी, भारत सरकार)
वृत्तचित्र / लेखन-निर्देशन-
विकास की लकीरे (सैण्डिट, नई दिल्ली), पंगु गिरि लंघै, गोरा हट जा (फ़िल्म्स डिवीज़न, भारत सरकार), हर बच्चा हो कक्षा पाँच (दूरदर्शन निदेशालय, भारत सरकार), इस ओर है छतेरा (जामिया मिलिया इस्लामिया)।
धारावाहिक लेखन / प्रस्तुति-
कहकहे, पर्दा उठता है (दिल्ली दूरदर्शन केन्द्र), वंश (आर.के. फ़िल्म्स, मुम्बई), अलबेला सुरमेला, फुलझड़ी ऐक्सप्रैस (सी. पी. सी. दूरदर्शन केन्द्र, नई दिल्ली), बात इसलिये बताई (एन. डी. टी. वी), पोल टॉप टैन, न्यूजी काउंट डाउन (ज़ी इंडिया), चुनाव चालीसा (सहारा समय), वाह वाह (सब टीवी), चुनाव चकल्लस, बजय व्यंग्य (सहारा राष्ट्रीय), चले आओ चक्रधर चमन में (दूरदर्शन)।
वृत्तचित्र लेखन-
बहू भी बेटी होती है (फ़िल्म्स डिवीज़न, भारत सरकार), जंगल की लय ताल, साड़ियों में लिपटी सदियाँ, साथ-साथ चलें, ये है चारा, ग्रामोदय, ज्ञान का उजाला, वत्सी नाव, रयूमेटिक हृदय होग, घैंघा पाडुराना, एड्रमौंटी टापू, छोटा नागपुर जल और थल, लोकोत्सव, नगर विकास (सैण्डिट, नई दिल्ली)।
पुरस्कार और सम्मान-
मुक्तिबोध की काव्यप्रक्रिया - वर्ष की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक (किसी युवा लेखक द्वारा रचित), जोधपुर वि.वि., राजस्थान, 'ठिठोली पुरस्कार', दिल्ली, 'हास्य-रत्न' उपाधि 'काका हाथरसी हास्य पुरस्कार', आकाशवाणी पुरस्कार 'प्रौढ़ बच्चे' सर्वश्रेष्ठ आकाशवाणी रूपक लेखन-निर्देशन पुरस्कार, दिल्ली, 'टी.ओ.वाई.पी. अवार्ड', (टैन आउटस्टैंडिंग यंग परसन ऑफ इंडिया), जेसीज़ क्लब, बम्बई, 'समाज रत्न' उपाधि साथी संगठन, दिल्ली, 'पं.जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय एकता अवार्ड', गीतांजलि, लखनऊ, 'मनहर पुरस्कार', साहित्य कला मंच, बम्बई, धारावाहिक 'ढाई आखर' लेखन-निर्देशन के लिए भूतपूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह द्वारा सम्मानित, 'बाल साहित्य पुरस्कार', हिन्दी अकादमी, दिल्ली, 'पंगु गिरि लंघै' सर्वश्रेष्ठ विकलांग आधारित फ़िल्म, लेखन-निर्देशन-निर्माण, राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव, भारत सरकार, 'कैरियर अवार्ड', विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली, 'आल राउण्ड पर्सनैलिटी', दिल्ली, 'आउटस्टैंडिंग परसन अवार्ड' रोटरी क्लब, दिल्ली, 'टेपा पुरस्कार', उज्जैन, 'राष्ट्रीय सद्भाव कवि' सम्मान, जागृति मंच, दिल्ली, 'राष्ट्रभाषा समृद्धि सम्मान', साई दास कला अकादमी, दिल्ली, 'कीर्तिमान पुरस्कार', मैहर, 'ये हैं ब्रज के गौरव' सम्मान, मथुरा, राष्ट्रपति डॉ॰ शंकरदयाल शर्मा द्वारा राष्ट्रपति भवन में काव्य पाठ के लिए सम्मानित, 'रोज़ अवार्ड' रोज़ फाइन आर्ट्स क्लब, दिल्ली, 'काका हाथरसी सम्मान', हिन्दी अकादमी, दिल्ली, 'हिन्दी उर्दू साहित्य अवार्ड', लखनऊ, राज्यपाल, उ.प्र. द्वारा सम्मानित, 'दिल्ली के गौरव' सम्मान, दिल्ली सरकार,'राष्ट्रीय पर्यावरण सेवा सम्मान', षष्ठम्‌ विश्व पर्यावरण महासम्मेलन, दिल्ली, 'सुमन सम्मान', भारती परिषद एवं निराला शिक्षा निधि उन्नाव, उत्तर प्रदेश, 'सद्भावना पुरस्कार', आल इंडिया ज्ञानी ज़ैल सिंह मैमोरियल सोसाइटी, दिल्ली, भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ॰ शंकरदयाल शर्मा द्वारा प्रदत्त, 'चौपाल सम्मान', मद्रास, 'काव्य-गौरव पुरस्कार', सागर, मध्य प्रदेश, 'डॉ॰ मंशाउर्रहमान मंशा सम्मान', नागपुर, 'राजभाषा सम्मान', भारतीय स्टेट बैंक, प्रधान कार्यालय, भोपाल (म.प्र.) इत्यादि अनेक पुरस्कारों से सम्मानित!
दिल्ली सरकार की हिंदी अकादमी ने हिंदी दिवस (14 सितंबर, 2016) को आयोजित एक समारोह में बालेन्दु शर्मा दाधीच को भाषा दूत सम्मान से अलंकृत किया। डिजिटल माध्यमों से हिंदी के विकास में योगदान देने वालों को मान्यता देने के लिए यह सम्मान पहली बार शुरू किया गया है। पूर्व संपादक और तकनीकविद् श्री दाधीच माइक्रोसॉफ्ट इंडिया में स्थानीयकरण प्रमुख (लोकलाइजेशन लीड) के रूप में कार्यरत हैं। उन्हें सम्मान स्वरूप प्रतीक चिह्न, प्रमाण पत्र और शॉल प्रदान किया गया।
अपने तुलसी बाबा रामचरितमानस में लिख गए हैं कि-
सुनहि बिनय मम बिटप आसोका।
सत्य नाम करु हरु मम सोका।।
अपने नाम को सत्य करते हुए, अपने अशोक चक्रधरजी भी संसार का शोक हरने में लगे हैं। उनकी एक बात याद आ रही है, आपको सुनाते हैं। जब अमेरिका नें ईराक पर हमला किया तो हमारे मोबाइल पर भारत की गुटनिर्पेक्षता का प्रदर्शन करता हुआ यह संदेसा आया, "सद्दाम मरे या बुश, हम दोनों में खुश।" एक कवि सम्मेलन में अशोक जी को सुना तो वे बोले कि आज कल यह संदेश बहुत प्रसारित हो रहा है, पर इसमें एक त्रुटि है, सही बात कुछ ऐसी होनी चाहिए!
"सद्दाम मरे ना बुश, हो दोनो पर अंकुश।"
अंकुश ज़रूरी है, और यह अंकुश प्रेम का भी हो सकता है। आवश्यक नहीं है कि अंकुश हाथी की पीठ पर चढ़कर ही लगाया जाए। यही भारत की संस्कृति है, जो हम संसार तक पहुँचा सकते हैं।

शिवमंगल सिंह सुमन

प्रस्तावना-
यह हार एक विराम है
जीवन महासंग्राम है
तिल-तिल मिटूँगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।
इन दिनों कविता के नाम पर प्रायः चुटकुले और फूहड़ता को ही मंचों पर अधिक स्थान मिल रहा है. यद्यपि श्रेष्ठ काव्य के श्रोताओं की कमी नहीं है, पर फिल्मों और दूरदर्शन के स्तरहीन कार्यक्रमों ने काव्य जैसी दैवी विधा को भी बाजार की वस्तु बना दिया है. वरिष्ठ कवि डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ अपने ओजस्वी स्वर से आजीवन इस प्रवृत्ति के विरुद्ध गरजते रहे!
जीवन परिचय
पांच अगस्त, 1916 को ग्राम झगरपुर (जिला उन्नाव, उ.प्र.) में जन्मे मेधावी छात्र शिवमंगल सिंह ने प्रारम्भिक शिक्षा अपने जन्मक्षेत्र में ही पाकर वर्ष 1937 में ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज से बीए किया. इसके बाद वर्ष 1940 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एमए तथा 1950 में डीलिट की उपाधियां प्राप्त कर उन्होंने अध्यापन को अपनी आजीविका बनाया. वे अच्छे सुघढ़ शरीर के साथ ही तेजस्वी स्वर के भी स्वामी थे. फिर भी उन्होंने अपना उपनाम ‘सुमन’ रखा, जो सुंदरता और कोमलता का प्रतीक है.
जिन दिनों वे ग्वालियर में अध्यापक थे, उन दिनों अटल बिहारी वाजपेयी जी भी वहां पढ़ते थे, जो आगे चलकर देश के प्रधानमंत्री बने. अटल जी स्वयं भी बहुत अच्छे कवि हैं. उन्होंने अपनी कविताओं पर सुमन जी के प्रभाव को कई बार स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है. ग्वालियर के बाद इंदौर और उज्जैन में अध्यापन करते हुए वे विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति बने. स्वाधीनता के संघर्ष में सहभागी बनने के कारण उनके विरुद्ध वारंट भी जारी हुआ. एक बार आंखों पर पट्टी बांधकर उन्हें किसी अज्ञात स्थान पर ले जाया गया. जब पट्टी खोली गयी, तो सामने क्रांतिवीर चंद्रशेखर आजाद खड़े थे. आजाद ने उन्हें एक रिवाल्वर देकर पूछा कि क्या इसे दिल्ली ले जा सकते हो ? सुमन जी ने इसे सहर्ष स्वीकार कर रिवाल्वर दिल्ली पहुंचा दी. सुमन जी का अध्ययन गहन और बहुआयामी था. इसलिए उनके भाषण में तथ्य और तर्क के साथ ही इतिहास और परम्परा का समुचित समन्वय होता था. उन्होंने गद्य और नाटक के क्षेत्र में भी काम किया, पर मूलतः वे कवि थे. जब वे अपने ओजस्वी स्वर से काव्यपाठ करते थे, तो मंच का वातावरण बदल जाता था. वे नये रचनाकारों तथा अपने सहयोगियों की मुक्तकंठ से प्रशंसा करते थे. इस प्रकार उन्होंने कई नये लेखक व कवि तैयार किये.
जिन दिनों सुमन जी युवा थे, उन दिनों वामपंथ की तूती बोल रही थी. अतः वे भी प्रगतिशीलता की इस तथाकथित दौड़ में शामिल हो गये, पर उन्होंने अंतरराष्ट्रीयता के आडम्बर और वाद की गठरी को अपने सिर पर बोझ नहीं बनने दिया. इसलिए उनकी रचनाओं में भारत और भारतीयता के प्रति गौरव की भावना के साथ ही निर्धन और निर्बल वर्ग की पीड़ा सदा मुखर होती थी!
वराष 1956 से 1961 तक नेपाल के भारतीय दूतावास में संस्कृति सचिव रहते हुए उन्होंने नेपाल तथा विश्व के अन्य देशों में भारतीय साहित्य के प्रचार व प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्हें साहित्य अकादमी, पद्मश्री, पद्मभूषण, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार आदि अनेक प्रतिष्ठित सम्मान मिले. वर्ष 1981 से 1983 तक वे ‘उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान’ के उपाध्यक्ष भी रहे!
प्रमुख कृतियाँ-
हिल्लोल, जीवन के गान, प्रलय-सृजन, विश्वास बढ़ता ही गया, पर आंखें नहीं भरीं, विंध्य-हिमालय, मिट्टी की बारात, वाणी की व्यथा, कटे अंगूठों की वंदनवारें उनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं. गद्य में महादेवी की काव्य साधना, गीति काव्य: उद्यम और विकास उल्लेखनीय हैं. प्रकृति पुरुष कालिदास उनका प्रसिद्ध नाटक है. उनकी हर रचना में अनूठी मौलिकता के दर्शन होते हैं.
हिन्दी कविता की वाचिक परंपरा आपकी लोकप्रियता की साक्षी है। देश भर के काव्य-प्रेमियों को अपने गीतों की रवानी से अचंभित कर देने वाले सुमन जी 27 नवंबर सन् 2002 को मौन हो गए। 'सुमन' चाहे कितना ही भौतिक हो, चाक्षुक आनंद देता है लेकिन वह निरंतर गंध में परिवर्तित होते हुए स्मृतियों में समाता है। सुमन अब 'गद्य' में है स्मृतियों में जीवित है। सुमनजी को जिसने भी देखा, सुना है वो अपनी चर्चाओं में, उदाहरण में कभी भी अपनी रचना नहीं सुनाते थे। वे हर अच्छी रचना और हर अच्छे प्रयास के प्रशंसक रहे। अन्य कवियों, लेखकों की रचनाओं की अद्भुत स्मृतियां उनमें जैसे ठसाठस भरी थीं!
कार्यक्षेत्र-
शिवमंगल सिंह 'सुमन' का कार्यक्षेत्र अधिकांशत: शिक्षा जगत से संबद्ध रहा। वे ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में हिंदी के व्याख्याता, माधव महाविद्यालय उज्जैन के प्राचार्य और फिर कुलपति रहे। अध्यापन के अतिरिक्त विभिन्न महत्त्वपूर्ण संस्थाओं और प्रतिष्ठानों से जुड़कर उन्होंने हिंदी साहित्य में श्रीवृद्धि की। सुमन जी प्रिय अध्यापक, कुशल प्रशासक, प्रखर चिंतक और विचारक भी थे। वे साहित्य को बोझ नहीं बनाते, अपनी सहजता में गंभीरता को छिपाए रखते। वह साहित्य प्रेमियों में ही नहीं अपितु सामान्य लोगों में भी बहुत लोकप्रिय थे। शहर में किसी अज्ञात-अजनबी व्यक्ति के लिए रिक्शे वाले को यह बताना काफ़ी था कि उसे सुमन जी के घर जाना है। रिक्शा वाला बिना किसी पूछताछ किए आगंतुक को उनके घर तक छोड़ आता। एक बार सुमन जी कानपुर के एक महाविद्यालय में किसी कार्यक्रम में आए। कार्यक्रम की समाप्ति पर कुछ पत्रकारों ने उन्हे घेर लिया। आयोजकों में से किसी ने कहा सुमन जी थके हैं। इस पर सुमन जी तपाक् से बोले, नहीं मैं थका नहीं हूँ। पत्रकार तत्कालिक साहित्य के निर्माता है। उनसे दो चार पल बात करना अच्छा लगता है। डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' के जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षण वह था जब उनकी आँखों पर पट्टी बांधकर उन्हे एक अज्ञात स्थान पर ले जाया गया। जब आँख की पट्टी खोली गई तो वह हतप्रभ थे। उनके समक्ष स्वतंत्रता संग्राम के महायोद्धा चंद्रशेखर आज़ाद खड़े थे। आज़ाद ने उनसे प्रश्न किया था, क्या यह रिवाल्वर दिल्ली ले जा सकते हो। सुमन जी ने बेहिचक प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। आज़ादी के दीवानों के लिए काम करने के आरोप में उनके विरुद्ध वारंट ज़ारी हुआ। सरल स्वभाव के सुमन जी सदैव अपने प्रशंसकों से कहा करते थे, मैं विद्वान नहीं बन पाया। विद्वता की देहरी भर छू पाया हूँ। प्राध्यापक होने के साथ प्रशासनिक कार्यों के दबाव ने मुझे विद्वान बनने से रोक दिया।
व्यक्तित्व जिन्होंने सुमनजी को सुना है वे जानते हैं कि 'सरस्वती' कैसे बहती है। सरस्वती की गुप्त धारा का वाणी में दिग्दर्शन कैसा होता है। जब वे बोलते थे तो तथ्य, उदाहरण, परंपरा, इतिहास, साहित्य, वर्तमान का इतना जीवंत चित्रण होता था कि श्रोता अपने अंदर आनंद की अनुभूति करते हुए 'ज्ञान' और ज्ञान की 'विमलता' से भरापूरा महसूस करता था। वह अंदर ही अंदर गूंजता रहता था और अनेकानेक अर्थों की 'पोटली' खोलता था। सुमनजी जैसा समृद्ध वक्ता मिलना कठिन है। सुमनजी जितने ऊंचे, पूरे, भव्य व्यक्तित्व के धनी थे, ज्ञान और कवि कर्म में भी वे शिखर पुरुष थे। उनकी ऊंचाई स्वयं की ही नहीं वे अपने आसपास के हर व्यक्ति में ऊँचाइयों, अच्छेपन का, रचनात्मकता का अहसास जगाते थे। उनकी विद्वता आक्रांत नहीं मरती थी। उनकी विद्वता, प्रशिक्षित करते हुए दूसरों में छुपी ज्ञान, रचना, गुणों की खदान से सोने की सिल्लियां भी निकालकर बताते थे कि 'भई ख़ज़ाना तो तुम्हारे पास भरा पड़ा है'। कभी-कभी उनके बारे में कहा जाता था कि सुमनजी तारीफ करने में अति कर जाते थे। जबकि वे तारीफ़ की अति नहीं वरन्‌ उन छुपी हुई रचना समृद्धि की तरफ इशारा करते थे जो आंखों में छुपी होती थी। वे किसी को 'बौना' सिद्ध नहीं करते, उन्होंने सदा सकारात्मकता से हर व्यक्ति, स्थान, लोगों, रचना को देखा। वे मूलतः इंसानी प्रेम, सौहार्द के रचनाकर्मी रहे। वे छोटी-छोटी ईंटों से भव्य इमारत बनाते थे। भव्य इमारत के टुकड़े नहीं करते थे। सामाजिक निर्माण की उनकी गति सकारात्मक, सृजनात्मक ही रही। फिर एक बात है तारीफ़ या प्रशंसा करने के लिए बेहद बड़ा दिल चाहिए, वह सुमनजी में था। वे प्रगतिशील कवि थे। वे वामपंथी थे। लेकिन 'वाद' को 'गठरी' लिए बोझ नहीं बनने दिया। उसे ढोया नहीं, वरन्‌ अपनी जनवादी, जनकल्याण, प्रेम, इंसानी जुड़ाव, रचनात्मक विद्रोह, सृजन से 'वाद' को खंगालते रहे, इसीलिए वे 'जनकवि' हुए वर्ना 'वाद' की बहस और स्थापनाओं में कवि कर्म, उनका मानस, कर्म कहीं क्षतिग्रस्त हो गया होता। सम्मान और पुरस्कार 1974 में 'मिट्टी की बारात' के लिए साहित्य अकादमी, 1993 में 'मिट्टी की बारात' के लिए 'भारत भारती पुरस्कार' से सम्मानित, 1974 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित, 1999 में पद्म भूषण 1958 में देवा पुरस्कार1974 में सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार1993 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा शिखर सम्मान!

गोपालदास नीरज : 5 पैसे से 5 लाख तक

प्रस्तावना
देश के ख्यात गीतकार और कवि गोपालदास नीरज को पिछले दिनों जब मुलायम सिंह द्वारा उत्तरप्रदेश का सर्वोच्च साहित्य सम्मान 'भारत भारती' लेते देखा और यह भी देखा कि प्रदेश सरकार ने उन्हें ताम्रपत्र के साथ 5 लाख रुपए की सम्मान निधि भेंट की तो दिल के किसी कोने में सुकून की अनुभूति हुई। नीरज उन कवियों में शुमार किए जाते हैं, जो आज भी अकेले के बूते पर किसी कवि सम्मेलन का मंच संभाल सकते हैं। काका हाथरसी के जमाने जब हास्य का पुट पूरे देश पर छाया हुआ था, तब नीरज की धीर गंभीर दौर दिल को स्पर्श कर लेने वाली कविताओं ने अपने श्रोता तैयार किए। नीरज जी से हिन्दी संसार अच्छी तरह परिचित है किन्तु फिर भी उनका काव्यात्मक व्यक्तित्व आज सबसे अधिक विवादास्पद है। जन समाज की दृष्टि में वह मानव प्रेम के अन्यतम गायक हैं। 'भदन्त आनन्द कौसल्यामन' के शब्दों में उनमें हिन्दी का ''अश्वघोष'' बनने की क्षमता है। दिनकर जी के कथनानुसार वह हिन्दी की वीणा है' अन्य भाषा भाषियों के विचार से वह 'सन्त कवि है' और कुछ आलोचकों के मत से वह 'निराश मृत्युवादी है'। वर्तमान समय में वह सर्वाधिक लोकप्रिय और लाडले कवि है इन्होंने अपनी मर्मस्पर्शी काव्यानुभूति तथा सहज सरल भाषा द्वारा हिन्दी कविता को एक नया मोड़ दिया है और बच्चन जी के बाद कवियों की नई पीढ़ी को सर्वाधिक प्रभावित किया। आज अनेक गीतकारों के कंठ में उन्हीं की अनुगूँज है।
 
संक्षिप्त जीवनी-
गोपालदास सक्सेना 'नीरज' का जन्म 4 जनवरी 1925 को ब्रिटिश भारत के संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध, जिसे अब उत्तर प्रदेश के नाम से जाना जाता है, में इटावा जिले के पुरावली गाँव में बाबू ब्रजकिशोर सक्सेना[1] के यहाँ हुआ था। मात्र 6 वर्ष की आयु में पिता गुजर गये। 1942 में एटा से हाई स्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। शुरुआत में इटावा की कचहरी में कुछ समय टाइपिस्ट का काम किया उसके बाद सिनेमाघर की एक दुकान पर नौकरी की। लम्बी बेकारी के बाद दिल्ली जाकर सफाई विभाग में टाइपिस्ट की नौकरी की। वहाँ से नौकरी छूट जाने पर कानपुर के डी०ए०वी कॉलेज में क्लर्की की। फिर बाल्कट ब्रदर्स नाम की एक प्राइवेट कम्पनी में पाँच वर्ष तक टाइपिस्ट का काम किया। नौकरी करने के साथ प्राइवेट परीक्षाएँ देकर 1949 में इण्टरमीडिएट, 1951 में बी०ए० और 1953 में प्रथम श्रेणी में हिन्दी साहित्य से एम०ए० किया। मेरठ कॉलेज मेरठ में हिन्दी प्रवक्ता के पद पर कुछ समय तक अध्यापन कार्य भी किया किन्तु कॉलेज प्रशासन द्वारा उन पर कक्षाएँ न लेने व रोमांस करने के आरोप लगाये गये जिससे कुपित होकर नीरज ने स्वयं ही नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। उसके बाद वे अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक नियुक्त हो गये और मैरिस रोड जनकपुरी अलीगढ़ में स्थायी आवास बनाकर रहने लगे। कवि सम्मेलनों में अपार लोकप्रियता के चलते नीरज को बम्बई के फिल्म जगत ने गीतकार के रूप में नई उमर की नई फसल के गीत लिखने का निमन्त्रण दिया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। पहली ही फ़िल्म में उनके लिखे कुछ गीत जैसे कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे और देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा बेहद लोकप्रिय हुए जिसका परिणाम यह हुआ कि वे बम्बई में रहकर फ़िल्मों के लिये गीत लिखने लगे। फिल्मों में गीत लेखन का सिलसिला मेरा नाम जोकर, शर्मीली और प्रेम पुजारी जैसी अनेक चर्चित फिल्मों में कई वर्षों तक जारी रहा। किन्तु बम्बई की ज़िन्दगी से भी उनका जी बहुत जल्द उचट गया और वे फिल्म नगरी को अलविदा कहकर फिर अलीगढ़ वापस लौट आये। तब से आज तक वहीं रहकर स्वतन्त्र रूप से मुक्ताकाशी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। आज अट्ठासी वर्ष की आयु में भी वे देश विदेश के कवि-सम्मेलनों में उसी ठसक के साथ शरीक होते हैं। बीड़ी, शराब और शायरी उनके जीवन की अभिन्न सहचरी बन चुकी हैं।
अपने वारे में उनका यह शेर आज भी मुशायरों में फरमाइश के साथ सुना जाता है:
इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में, लगेंगी आपको सदियाँ हमें भुलाने में।
न पीने का सलीका न पिलाने का शऊर, ऐसे भी लोग चले आये हैं मयखाने में॥
प्रमुख कविता संग्रह-
हिन्दी साहित्यकार के अनुसार नीरज की कालक्रमानुसार प्रकाशित कृतियाँ इस प्रकार हैं:
संघर्ष (1944), अन्तर्ध्वनि (1946), विभावरी (1948)प्राणगीत (1951), दर्द दिया है (1956)बादर बरस गयो (1957)मुक्तकी (1958)दो गीत (1958)नीरज की पाती (1958)गीत भी अगीत भी (1959)आसावरी (1963)नदी किनारे (1963)लहर पुकारे (1963)कारवाँ गुजर गया (1964)फिर दीप जलेगा (1970)तुम्हारे लिये(1972), नीरज की गीतिकाएँ (1987)
पुरस्कार एवं सम्मान-
नीरज जी को अब तक कई पुरस्कार व सम्मान[4] प्राप्त हो चुके हैं, जिनका विवरण इस प्रकार है:
पुरस्कार एवं सम्मान :
(i) विश्व उर्दू परिषद् पुरस्कार | (ii) पद्म श्री सम्मान (1991), भारत सरकार | (iii) यश भारती एवं एक लाख रुपये का पुरस्कार (1994), उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ | (iv) पद्म भूषण सम्मान (2007), भारत सरकार | उनके द्वारा लिखी गयी प्रमुख कविता संग्रह : (i) संघर्ष (1944) | (ii) अन्तर्ध्वनि (1946) | (iii) विभावरी (1948) | (iv) प्राणगीत (1951) | (v) दर्द दिया है (1956) | (vi) बादर बरस गयो (1957) | (vii) मुक्तकी (1958) | (viii) दो गीत (1958) | (ix) नीरज की पाती (1958) | (x) गीत भी अगीत भी (1959) | (xi) आसावरी (1963) | (xii) नदी किनारे (1963) | (xiii) लहर पुकारे (1963) | (xiv) कारवाँ गुजर गया (1964) | (xv) फिर दीप जलेगा (1970) | (xvi) तुम्हारे लिये (1972) |
फिल्म फेयर पुरस्कार
नीरज जी को फ़िल्म जगत में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये उन्नीस सौ सत्तर के दशक में लगातार तीन बार यह पुरस्कार दिया गया। उनके द्वारा लिखे गये! सुप्रसिद्ध गीतकार और कवि गोपालदास नीरज को मध्यप्रदेश सरकार द्वारा 25 मार्च 2015 को प्रथम राष्ट्रीय कवि प्रदीप सम्मान से सम्मानित किया गया है | भोपाल में आयोजित समारोह में मध्यप्रदेश के संस्कृति राज्य मंत्री सुरेन्द्र पटवा ने नीरज को 2 लाख रुपये की सम्मान राशि, सम्मान पट्टिका और शॉल प्रदान किया | इस पुरस्कार की शुरुआत मध्य प्रदेश सरकार ने की | मध्यप्रदेश शासन द्वारा स्थापित यह पहला राष्ट्रीय कवि प्रदीप सम्मान है | निर्णायक मण्डल ने गोपालदास नीरज को पहला राष्ट्रीय कवि प्रदीप सम्मान देने का फैसला किया!
पुररकृत गीत हैं-
1970: काल का पहिया घूमे रे भइया! (फ़िल्म: चन्दा और बिजली), 1971: बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ (फ़िल्म: पहचान)1972: ए भाई! ज़रा देख के चलो (फ़िल्म: मेरा नाम जोकर)
मन्त्रीपद का विशेष दर्जा-
उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार ने अभी हाल सितम्बर में ही नीरजजी को भाषा संस्थान का अध्यक्ष नामित कर कैबिनेट मन्त्री का दर्जा दिया है। साहित्यकारों के पुरस्कार लौटाने पर नाराजगी जताते हुए मशहूर कवि गोपालदास 'नीरज' ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का समर्थन किया था। आगरा में नीरज ने कहा था- 'साहि‍त्‍यकार मोदी के खि‍लाफ राजनीति कर रहे हैं। इन सहित्‍यकारों को कांग्रेस के राज में पुरस्‍कार मिला था और अब वही इनसे ये पुरस्‍कार लौटाने का काम करवा रही है। इससे कांग्रेस की ही बदनामी हो रही है। इस बीच, मशहूर गीतकार प्रसून जोशी ने अवॉर्ड लौटाने वाले लेखकों पर कहा है कि इस तरह के विरोधों से देश में असहिष्णुता (इनटॉलरेंस) बढ़ रही है। उन्‍होंने अपने बयान में कह था- 'साहित्‍यिक पहचान के ऊपर पॉलिटिक्‍स होना दुखद है। इससे उन्‍हें पीड़ा होती है।'

प्रकृति के सुकुमार कवि- सुमित्रानंदन पंत

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प्रस्तावना-

बीसवीं शताब्दी के भारतीय अंतस् और मानस को समझने के लिए महाकवि पंत के
वृहद रचनाकाश को जानना बहुत आवश्यक है। वीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन,
ज्योत्स्ना, ग्राम्या, युगांत, उत्तरा, अतिमा, चिदंबरा (भारतीय ज्ञानपीठ से
 सम्मानित) कला और बूढ़ा चाँद (साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत) तथा
लोकायतन जैसे प्रबंध-काव्य के रचयिता पंत प्रगीत प्रतिभा के पुरोगामी सर्जक
 तथा कला-विदग्ध कवि के रूप में, व्यापक पाठक वर्ग में समादृत रहे हैं,
यद्यपि उन्होंने नाटक, एकांकी, रेडियो-रूपक, उपन्यास, कहानी आदि विधाओं में
 भी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। पंत जी की समस्त रचनाएँ भारतीय जीवन की समृद्ध
 सांस्कृतिक चेतना से गहन साक्षात्कार कराती हैं। उन्होंने खड़ी बोली की
प्रकृति और उसके पुरुषार्थ, शक्ति और सामर्थ्य की पहचान का अभिमान ही नहीं
चलाया, उसे अभिनंदित भी किया। उनके प्रकृति वर्णन में हृदयस्पर्शी तन्मयता,
 उर्मिल लयात्मकता और प्रकृत प्रसन्नता का विपुल भाव है।

जीवन परिचय-

सुमित्रानंदन पंत का जन्म 20 मई 1900 में कौसानी, उत्तराखण्ड, भारत में हुआ
 था। जन्म के छह घंटे बाद ही माँ को क्रूर मृत्यु ने छीन लिया। शिशु को
उसकी दादी ने पाला पोसा। शिशु का नाम रखा गया गुसाईं दत्त। ज्ञानपीठ
पुरस्कार से सम्मानित हिन्दी के सुकुमार कवि पंत की प्रारंभिक शिक्षा
कौसानी गांव के स्कूल में हुई, फिर वह वाराणसी आ गए और 'जयनारायण हाईस्कूल'
 में शिक्षा पाई, इसके बाद उन्होंने इलाहाबाद में 'म्योर सेंट्रल कॉलेज'
में प्रवेश लिया, पर इंटरमीडिएट की परीक्षा में बैठने से पहले ही 1921 में
असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए।

प्रारम्भिक जीवन­­-

कवि के बचपन का नाम 'गुसाईं दत्त' था। स्लेटी छतों वाले पहाड़ी घर, आंगन के
 सामने आडू, खुबानी के पेड़, पक्षियों का कलरव, सर्पिल पगडण्डियां, बांज,
बुरांश व चीड़ के पेड़ों की बयार व नीचे दूर दूर तक मखमली कालीन सी पसरी
कत्यूर घाटी व उसके उपर हिमालय के उत्तंग शिखरों और दादी से सुनी कहानियों व
 शाम के समय सुनायी देने वाली आरती की स्वर लहरियों ने गुसाईं दत्त को बचपन
 से ही कवि हृदय बना दिया था। क्योंकि जन्म के छ: घण्टे बाद ही इनकी माँ का
 निधन हो गया था, इसीलिए प्रकृति की यही रमणीयता इनकी मां बन गयी। प्रकृति
के इसी ममतामयी छांव में बालक गुसाईं दत्त धीरे- धीरे यहां के सौन्दर्य को
शब्दों के माध्यम से काग़ज़ में उकेरने लगा। पिता 'गंगादत्त' उस समय कौसानी
 चाय बग़ीचे के मैनेजर थे। उनके भाई संस्कृत व अंग्रेज़ी के अच्छे जानकार
थे, जो हिन्दी व कुमाँऊनी में कविताएं भी लिखा करते थे। यदाकदा जब उनके भाई
 अपनी पत्नी को मधुर कंठ से कविताएं सुनाया करते तो बालक गुसाईं दत्त
किवाड़ की ओट में चुपचाप सुनता रहता और उसी तरह के शब्दों की तुकबन्दी कर
कविता लिखने का प्रयास करता। बालक गुसाईं दत्त की प्राइमरी तक की शिक्षा
कौसानी के 'वर्नाक्यूलर स्कूल' में हुई। इनके कविता पाठ से मुग्ध होकर
स्कूल इंसपैक्टर ने इन्हें उपहार में एक पुस्तक दी थी। ग्यारह साल की उम्र
में इन्हें पढा़ई के लिये अल्मोडा़ के 'गवर्नमेंट हाईस्कूल' में भेज दिया
गया। कौसानी के सौन्दर्य व एकान्तता के अभाव की पूर्ति अब नगरीय सुख वैभव
से होने लगी। अल्मोडा़ की ख़ास संस्कृति व वहां के समाज ने गुसाईं दत्त को
अन्दर तक प्रभावित कर दिया। सबसे पहले उनका ध्यान अपने नाम पर गया। और
उन्होंने लक्ष्मण के चरित्र को आदर्श मानकर अपना नाम गुसाईं दत्त से बदल कर
 'सुमित्रानंदन' कर लिया। कुछ समय बाद नेपोलियन के युवावस्था के चित्र से
प्रभावित होकर अपने लम्बे व घुंघराले बाल रख लिये।

साहित्यिक परिचय-

 अल्मोड़ा में तब कई साहित्यिक व सांस्कृतिक गतिविधियां होती रहती थीं
जिसमें पंत अक्सर भाग लेते रहते। स्वामी सत्यदेव जी के प्रयासों से नगर में
 ‘शुद्ध साहित्य समिति‘ नाम से एक पुस्तकालय चलता था। इस पुस्तकालय से पंत
जी को उच्च कोटि के विद्वानों का साहित्य पढ़ने को मिलता था। कौसानी में
साहित्य के प्रति पंत जी में जो अनुराग पैदा हुआ वह यहां के साहित्यिक
वातावरण में अब अंकुरित होने लगा। कविता का प्रयोग वे सगे सम्बन्धियों को
पत्र लिखने में करने लगे। शुरुआती दौर में उन्होंने 'बागेश्वर के मेले',
'वकीलों के धनलोलुप स्वभाव' व 'तम्बाकू का धुंआ' जैसी कुछ छुटपुट कविताएं
लिखी। आठवीं कक्षा के दौरान ही उनका परिचय प्रख्यात नाटककार गोविन्द बल्लभ
पंत, श्यामाचरण दत्त पंत, इलाचन्द्र जोशी व हेमचन्द्र जोशी से हो गया था।
अल्मोड़ा से तब हस्तलिखित पत्रिका ‘सुधाकर‘ व ‘अल्मोड़ा अखबार‘ नामक पत्र
निकलता था जिसमें वे कविताएं लिखते रहते। अल्मोड़ा में पंत जी के घर के ठीक
 उपर स्थित गिरजाघर की घण्टियों की आवाज़ उन्हें अत्यधिक सम्मोहित करती
थीं। अक़्सर प्रत्येक रविवार को वे इस पर एक कविता लिखते। ‘गिरजे का घण्टा‘
 शीर्षक से उनकी यह कविता सम्भवतः पहली रचना है-


नभ की उस नीली चुप्पी पर घण्टा है एक टंगा सुन्दर
जो घड़ी घड़ी मन के भीतर कुछ कहता रहता बज बज कर


दुबले पतले व सुन्दर काया के कारण पंत जी को स्कूल के नाटकों में अधिकतर
स्त्री पात्रों का अभिनय करने को मिलता। 1916 में जब वे जाड़ों की
छुट्टियों में कौसानी गये तो उन्होंने ‘हार‘ शीर्षक से 200 पृष्ठों का 'एक
खिलौना' उपन्यास लिख डाला। जिसमें उनके किशोर मन की कल्पना के नायक
नायिकाओं व अन्य पात्रों की मौजूदगी थी। कवि पंत का किशोर कवि जीवन कौसानी व
 अल्मोड़ा में ही बीता था। इन दोनों जगहों का वर्णन भी उनकी कविताओं में
मिलता है।


स्वतंत्रता संग्राम में योगदान-

1921 के असहयोग आंदोलन में उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया था, पर देश के
स्वतंत्रता संग्राम की गंभीरता के प्रति उनका ध्यान 1930 के नमक सत्याग्रह
के समय से अधिक केंद्रित होने लगा, इन्हीं दिनों संयोगवश उन्हें कालाकांकर
में ग्राम जीवन के अधिक निकट संपर्क में आने का अवसर मिला। उस ग्राम जीवन
की पृष्ठभूमि में जो संवेदन उनके हृदय में अंकित होने लगे, उन्हें वाणी
देने का प्रयत्न उन्होंने युगवाणी (1938) और ग्राम्या (1940) में किया।
यहाँ से उनका काव्य, युग का जीवन-संघर्ष तथा नई चेतना का दर्पण बन जाता है।
 स्वर्णकिरण तथा उसके बाद की रचनाओं में उन्होंने किसी आध्यात्मिक या
दार्शनिक सत्य को वाणी न देकर व्यापक मानवीय सांस्कृतिक तत्त्व को
अभिव्यक्ति दी, जिसमें अन्न प्राण, मन आत्मा, आदि मानव-जीवन के सभी स्वरों
की चेतना को संयोजित करने का प्रयत्न किया गया।


काव्य एवं साहित्य की साधना­­­-

 पंतजी संघर्षों के एक लंबे दौर से गुज़रे, जिसके दौरान स्वयं को काव्य एवं
 साहित्य की साधना में लगाने के लिए उन्होंने अपनी आजीविका सुनिश्चित करने
का प्रयास किया। बहुत पहले ही उन्होंने यह समझ लिया था कि उनके जीवन का
लक्ष्य और कार्य यदि कोई है, तो वह काव्य साधना ही है। पंत की भाव-चेतना
महाकवि रबींद्रनाथ ठाकुर, महात्मा गांधी और श्री अरबिंदो घोष की रचनाओं से
प्रभावित हुई। साथ ही कुछ मित्रों ने मार्क्सवाद के अध्ययन की ओर भी उन्हें
 प्रवृत किया और उसके विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पक्षों को उन्होंने गहराई से
देखा व समझा। 1950 में रेडियो विभाग से जुड़ने से उनके जीवन में एक ओर मोड़
 आया। सात वर्ष उन्होंने 'हिन्दी चीफ़ प्रोड्यूसर' के पद पर कार्य किया और
उसके बाद साहित्य सलाहकार के रूप में कार्यरत रहे।


युग प्रवर्तक कवि- सुमित्रानंदन पंत आधुनिक हिन्दी साहित्य के एक युग
प्रवर्तक कवि हैं। उन्होंने भाषा को निखार और संस्कार देने, उसकी सामर्थ्य
को उद्घाटित करने के अतिरिक्त नवीन विचार व भावों की समृद्धि दी। पंत सदा
ही अत्यंत सशक्त और ऊर्जावान कवि रहे हैं। सुमित्रानंदन पंत को मुख्यत:
प्रकृति का कवि माना जाने लगा। लेकिन पंत वास्तव में मानव-सौंदर्य और
आध्यात्मिक चेतना के भी कुशल कवि थे।


रचनाकाल­­-

 पंत का पल्लव, ज्योत्सना तथा गुंजन का रचनाकाल काल (1926-33) उनकी सौंदर्य
 एवं कला-साधना का काल रहा है। वह मुख्यत: भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण की
 आदर्शवादिता से अनुप्राणिक थे। किंतु युगांत (1937) तक आते-आते बहिर्जीवन
के खिंचाव से उनके भावात्मक दृष्टिकोण में परिवर्तन आए। पन्तजी की रचनाओं
का क्षेत्र बहुविध और बहुआयामी है। आपकी रचनाओं सा संक्षिप्त परिचय इस
प्रकार है-


महाकाव्य-

'लोकायतन' कवि सुमित्रानन्दन पन्त का महाकाव्य है। कवि की विचारधारा और
लोक-जीवन के प्रति उसकी प्रतिबद्धता इस रचना में अभिव्यक्त हुई है। इस पर
कवि को 'सोवियत रूस' तथा उत्तर प्रदेश शासन से पुरस्कार प्राप्त हुआ है।
पंत जी को अपने माता-पिता के प्रति असीम-सम्मान था। इसलिए उन्होंने अपने दो
 महाकाव्यों में से एक महाकाव्य 'लोकायतन' अपने पूज्य पिता को और दूसरा
महाकाव्य 'सत्यकाम' अपनी स्नेहमयी माता को, जो इन्हें जन्म देते ही स्वर्ग
सिधार गईं, समर्पित किया है।[3] अपनी माँ सरस्वती देवी[4] को स्मरण करते
हुए इन्होंने अपना दूसरा महाकाव्य 'सत्यकाम' जिन शब्दों के साथ उन्हें
समर्पित किया है, वे द्रष्टव्य हैं-


    मुझे छोड़ अनगढ़ जग में तुम हुई अगोचर,
    भाव-देह धर लौटीं माँ की ममता से भर !
    वीणा ले कर में, शोभित प्रेरणा-हंस पर,
    साध चेतना-तंत्रि रसौ वै सः झंकृत कर
    खोल हृदय में भावी के सौन्दर्य दिगंतर !


काव्य-संग्रह -

 'वीणा', 'पल्लव' तथा 'गुंजन' छायावादी शैली में सौन्दर्य और प्रेम की
प्रस्तुति है। 'युगान्त', युगवाणी' तथा 'ग्राम्या' में पन्तजी के
प्रगतिवादी और यथार्थपरक भावों का प्रकाशन हुआ है। 'स्वर्ण-किरण',
'स्वर्ण-धूलि', 'युगपथ', 'उत्तरा', 'अतिमा', तथा 'रजत-रश्मि' संग्रहों में
अरविन्द-दर्शन का प्रभाव परिलक्षित होता है। इनके अतिरिक्त 'कला और बूढ़ा
चाँद' तथा 'चिदम्बरा' भी आपकी सम्मानित रचनाएँ हैं। पन्तजी की अन्तर्दृष्टि
 तथा संवेदनशीलता ने जहाँ उनके भाव-पक्ष को गहराई और विविधता प्रदान की
हैं, वहीं उनकी कल्पना-प्रबलता और अभिव्यक्ति-कौशल ने उनके कला-पक्ष को
सँवारा है।


रचनाएँ-

 चिदंबरा 1958 का प्रकाशन है। इसमें युगवाणी (1937-38) से अतिमा (1948) तक
कवि की 10 कृतियों से चुनी हुई 196 कविताएं संकलित हैं। एक लंबी
आत्मकथात्मक कविता आत्मिका भी इसमें सम्मिलित है, जो वाणी (1957) से ली गई
है। चिदंबरा पंत की काव्य चेतना के द्वितीय उत्थान की परिचायक है। प्रमुख
रचनाएं इस प्रकार है:-
कविताएं- वीणा (1919), ग्रंथि (1920), पल्लव (1926), गुंजन (1932), युगांत
(1937), युगवाणी (1938), ग्राम्या (1940), स्वर्णकिरण (1947),  
स्वर्णधूलि (1947, उत्तरा (1949), युगपथ (1949), चिदंबरा (1958), कला और
बूढ़ा चाँद (1959) लोकायतन (1964), गीतहंस (1969)।
कहानियाँ- पाँच कहानियाँ (1938)
उपन्यास- हार (1960),
आत्मकथात्मक संस्मरण- साठ वर्ष : एक रेखांकन (1963)।


साहित्यिक विशेषताएँ­-

छायावाद को मुख्यतः ‘प्रेरणा का काव्य’ मानने वाले इस कोमल-प्राण कवि ने
'हार' नामक उपन्यास के लेखन से अपनी रचना-यात्रा आरंभ की थी, जो ‘मुक्ताभ’
के प्रणयन तक जारी रही। मुख्यतः कवि-रूप में प्रसिद्ध होने के अलावा ये
'प्रथम कोटि के आलोचक, विचारक और गद्यकार' थे। इन्होंने मुक्तक, लंबी
कविता, गद्य-नाटिका, पद्य-नाटिका, रेडियो-रूपक, एकांकी, उपन्यास, कहानी
इत्यादि जैसी विभिन्न विधाओं में अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं और लोकायतन
तथा सत्यकाम जैसे वृहद महाकाव्य भी लिखे हैं। विधाओं की विविधता की दृष्टि
से इनके द्वारा संपादित 'रूपाभ पत्रिका' (सन् 1938 ईस्वी) की संपादकीय
टिप्पणियाँ और मधुज्वाल की भावानुवादाश्रित कविताएँ भी कम महत्त्वपूर्ण
नहीं हैं। आशय यह कि विभिन्न विधाओं में उपलब्ध इनके विपुल साहित्य को एक
नातिदीर्घ रचना-संचयन में प्रस्तुत करना कठिन कार्य है। रचनाओं की विपुलता
के साथ ही यह भी लक्ष्य करने योग्य है कि प्रकृति और नारी–सौंदर्य से
रचनारंभ करनेवाले पंत जी मानव, सामान्य जन और समग्र मानवता की कल्याण-कामना
 से सदैव जुड़े रहे। इनकी मान्यता थी कि ‘आने वाला मानव निश्चिय ही न पूर्व
 का होगा, न पश्चिम का।’ ये सार्वभौम मनुष्यता के विश्वासी थे। अध्यात्म,
अंतश्चेतना, प्रेम, समदिक् संचरण इत्यादि जैसा संकल्पनाओं से भावाकुल पंत
के लेखन-चिन्तन का केन्द्र-बिन्दु हमेशा ‘लोक’ पक्ष ही रहा, जो लोकायतन के
नामकरण से भी संकेतित होता है। पंत-काव्य का तृतीय चरण, जो ‘नवीन सगुण’ के
नाम से चर्चित है और जिसे हम शुभैषणा-सदिच्छा का स्वस्ति-काव्य कह सकते
हैं, इसी ‘लोक’ के मंगल पर केन्द्रित है।


प्रकृति-प्रेमी कवि-

'उच्छास' से लेकर 'गुंजन' तक की कविता का सम्पूर्ण भावपट कवि की
सौन्दर्य-चेतना का काल है। सौन्दर्य-सृष्टि के उनके प्रयत्न के मुख्य
उपादान हैं- प्रकृति, प्रेम और आत्म-उद्बोधन। अल्मोड़ा की प्राकृतिक सुषमा
ने उन्हें बचपन से ही अपनी ओर आकृष्ट किया। ऐसा प्रतीत होता है जैसे मां की
 ममता से रहित उनके जीवन में मानो प्रकृति ही उनकी मां हो। उत्तर प्रदेश के
 अल्मोड़ा के पर्वतीय अंचल की गोद में पले बढ़े पंत जी स्वयं यह स्वीकार
करते हैं कि उस मनोरम वातावरण का इनके व्यक्तित्व पर गंभीर प्रभाव पड़ा।
कवि या कलाकार कहां से प्रेरणा ग्रहण करता है इस बारे में अपने विचार
व्यक्त करते हुए पंत जी कहते हैं, संभवत: प्रेरणा के स्रोत भीतर न होकर
अधिकतर बाहर ही रहते हैं। अपनी काव्य यात्रा में पन्त जी सदैव सौन्दर्य को
खोजते नजर आते हें। शब्द, शिल्प, भाव और भाषा के द्वारा कवि पंत प्रकृति और
 प्रेम के उपादानों से एक अत्यंत सूक्ष्य और हृदयकारी सौन्दर्य की सृष्टि
करते हैं, किंतु उनके शब्द केवल प्रकृति-वर्णन के अंग न होकर एक दूसरे अर्थ
 की गहरी व्यंजना से संयोजित हैं। उनकी रचनाओं में छायावाद एवं रहस्यवाद का
 समावेश भी है। साथ ही शेली, कीट्स, टेनिसन आदि अंग्रेज़ी कवियों का प्रभाव
 भी है। मेरे मूक कवि को बाहर लाने का सर्वाधिक श्रेय मेरी जन्मभूमि के उस
नैसर्गिक सौन्दर्य को है जिसकी गोद में पलकर मैं बड़ा हुआ जिसने छुटपन से
ही मुझे अपने रूपहले एकांत में एकाग्र तन्मयता के रश्मिदोलन में झुलाया,
रिझाया तथा कोमल कण्ठ वन-पखियों ने साथ बोलना कुहुकन सिखाया। पंतजी को जन्म
 के उपरांत ही मातृ-वियोग सहना पड़ा।


भाव पक्ष -

 पन्तजी के भाव-पक्ष का एक प्रमुख तत्त्व उनका मनोहारी प्रकृति चित्रण है।
कौसानी की सौन्दर्यमयी प्राकृतिक छटा के बीच पन्तजी ने अपनी बाल-कल्पनाओं
को रूपायित किया था। प्रकृति के प्रति उनका सहज आकर्षण उनकी रचनाओं के बहुत
 बड़े भाग को प्रभावित किए हुए है। प्रकृति के विविध आयामों और भंगिमाओं को
 हम पन्त के काव्य में रूपांकित देखते हैं। वह मानवी-कृता सहेली है,
भावोद्दीपिका है, अभिव्यक्ति का आलम्बन है और अलंकृता प्रकृति-वधू भी है।
इसके अतिरिक्त प्रकृति कवि पन्त के लिए उपदेशिका और दार्शनिक चिन्तन का
आधार भी बनी है। कवि पन्त को सामान्यतया कोमल-कान्त भावनाओं और सौन्दर्य का
 कवि समझा जाता है किन्तु जीवन के यथार्थों से सामना होने पर कवि में जीवन
के प्रति यथार्थपरक और दार्शनिक दृष्टिकोण का विकास होता गया है। सर्वप्रथम
 पन्त मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित हुए, जिसका प्रभाव उनकी
'युगान्त', 'युगवाणी' आदि रचनाओं में परिलक्षित होता है। गाँधीवाद से भी आप
 प्रभावित दिखते हैं। 'लोकायतन' में यह प्रभाव विद्यमान है। महर्षि अरविन्द
 की विचारधारा का भी आप पर गहरा प्रभाव पड़ा। 'गीत-विहग' रचना इसका उदाहरण
है। सौन्दर्य और उल्लास के कवि पन्त को जीवन का निराशामय विरूप-पक्ष भी
भोगना पड़ा और इसकी प्रतिक्रिया 'परिवर्तन' नामक रचना में दृष्टिगत होती
है-


    अखिल यौवन के रंग उभार हड्डियों के हिलते कंकाल,
    खोलता इधर जन्म लोचन मूँदती उधर मृत्यु क्षण-क्षण।


पन्तजी के काव्य में मानवतावादी दृष्टि को भी सम्मानित स्थान प्राप्त है।
वह मानवीय प्रतिष्ठा और मानव-जाति के भावी विकास में दृढ़ विश्वास रखते
हैं। 'द्रुमों की छाया' और 'प्रकृति की माया' को छोड़कर जो पन्त 'बाला के
बाल-जाल' में 'लोचन उलझाने' को प्रस्तुत नहीं थे, वही मानव को विधाता की
सुन्दरतम कृति स्वीकार करते हैं-


    सुन्दर है विहग सुमन सुन्दर, मानव तुम सबसे सुन्दरतम।
    वह चाहते हैं कि देश, जाति और वर्गों में विभाजित मनुष्य की केवल एक ही
 पहचान हो - मानव।


भाषा-शैली-

कवि पन्त का भाषा पर असाधारण अधिकार है। भाव और विषय के अनुकूल मार्मिक
शब्दावली उनकी लेखनी से सहज प्रवाहित होती है। यद्यपि पन्त की भाषा का एक
विशिष्ट स्तर है फिर भी वह विषयानुसार परिवर्तित होती है। पन्तजी के काव्य
में एकाधिक शैलियों का प्रयोग हुआ है। प्रकृति-चित्रण में भावात्मक,
आलंकारिक तथा दृश्य विधायनी शैली का प्रयोग हुआ है। विचार-प्रधान तथा
दार्शनिक विषयों की शैली विचारात्मक एवं विश्लेषणात्मक भी हो गई है। इसके
अतिरिक्त प्रतीक-शैली का प्रयोग भी हुआ है। सजीव बिम्ब-विधान तथा
ध्वन्यात्मकता भी आपकी रचना-शैली की विशेषताएँ हैं।


अलंकरण-

पन्तजी ने परम्परागत एवं नवीन, दोनों ही प्रकार के अलंकारों का भव्यता से
प्रयोग किया है। बिम्बों की मौलिकता तथा उपमानों की मार्मिकता हृदयहारिणी
है। रूपक, उपमा, सांगरूपक, मानवीकरण, विशेषण-विपर्यय तथा ध्वन्यर्थ-व्यंजना
 का आकर्षक प्रयोग आपने किया है।


छंद-

 पन्तजी ने परम्परागत छन्दों के साथ-साथ नवीन छंदों की भी रचना की है। आपने
 गेयता और ध्वनि-प्रभाव पर ही बल दिया है, मात्राओं और वर्णों के क्रम तथा
संख्या पर नहीं। प्रकृति के चितेरे तथा छायावादी कवि के रूप में पन्तजी का
स्थान निश्चय ही विशिष्ट है। हिन्दी की लालित्यपूर्ण और संस्कारित खड़ी
बोली भी पन्तजी की देन है। पन्तजी विश्व-साहित्य में भी अपना स्थान बना गए
हैं।


पुरस्कार-

 सुमित्रानंदन पंत को पद्म भूषण (1961) और ज्ञानपीठ पुरस्कार (1968) से
सम्मानित किया गया। कला और बूढ़ा चाँद के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार,
लोकायतन पर 'सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार' एवं 'चिदंबरा' पर इन्हें 'भारतीय
ज्ञानपीठ पुरस्कार' प्राप्त हुआ।


संग्रहालय-

उत्तराखंड राज्य के कौसानी में महाकवि पंत की जन्म स्थली को सरकारी तौर पर
अधिग्रहीत कर उनके नाम पर एक राजकीय संग्रहालय बनाया गया है, जिसकी देखरेख
एक स्थानीय व्यक्ति करता है। इस स्थल के प्रवेश द्वार से लगे भवन की छत पर
महाकवि की मूर्ति स्थापित है। वर्ष 1990 में स्थापित इस मूर्ति का अनावरण
वयोवृद्ध साहित्यकार तथा इतिहासवेत्ता पंडित नित्यनंद मिश्र द्वारा उनके
जन्म दिवस 20 मई को किया गया था। महाकवि सुमित्रानंदन पंत का पैत्रक ग्राम
यहां से कुछ ही दूरी पर है; परन्तु वह आज भी अनजाना तथा तिरस्कृत है।
संग्रहालय में महाकवि द्वारा उपयोग में लायी गयी दैनिक वस्तुएँ यथा शॉल,
दीपक, पुस्तकों की अलमारी तथा महाकवि को समर्पित कुछ सम्मान-पत्र, पुस्तकें
 तथा हस्तलिपि सुरक्षित हैं।


मृत्यु-

कौसानी चाय बाग़ान के व्यवस्थापक के परिवार में जन्मे महाकवि सुमित्रानंदन
पंत की मृत्यु 28 दिसम्बर, 1977 को इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश में हुई।
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Sunday 4 December 2016

अज्ञेय, सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन

प्रस्तावना-सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" (7 मार्च, 1911- 4 अप्रैल, 1987) को प्रतिभासम्पन्न कवि, शैलीकार, कथा-साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ देने वाले कथाकार, ललित-निबन्धकार, सम्पादक और सफल अध्यापक के रूप में जाना जाता है। इनका जन्म 7 मार्च 1911 को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कुशीनगर नामक ऐतिहासिक स्थान में हुआ। बचपन लखनऊ, कश्मीर, बिहार और मद्रास में बीता। बी.एस.सी. करके अंग्रेजी में एम.ए. करते समय क्रांतिकारी आन्दोलन से जुड़कर बम बनाते हुए पकडे गये और वहाँ से फरार भी हो गए। सन्1930 ई. के अन्त में पकड़ लिये गये। अज्ञेय प्रयोगवाद एवं नई कविता को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं। अनेक जापानी हाइकु कविताओं को अज्ञेय ने अनूदित किया। बहुआयामी व्यक्तित्व के एकान्तमुखी प्रखर कवि होने के साथ-साथ वे एक अच्छे फोटोग्राफर और सत्यान्वेषी पर्यटक भी थे।
 व्यक्तिगत जीवन
अज्ञेय जी के पिता पण्डित हीरानंद शास्त्री प्राचीन लिपियों के विशेषज्ञ थे। इनका बचपन इनके पिता की नौकरी के साथ कई स्थानों की परिक्रमा करते हुए बीता। कुशीनगर में अज्ञेय जी का जन्म 7 मार्च, 1911 को हुआ था। लखनऊ, श्रीनगर, जम्मू घूमते हुए इनका परिवार 1919 में नालंदा पहुँचा। नालंदा में अज्ञेय के पिता ने अज्ञेय से हिन्दी लिखवाना शुरू किया। इसके बाद 1921 में अज्ञेय का परिवार ऊटी पहुँचा ऊटी में अज्ञेय के पिता ने अज्ञेय का यज्ञोपवीत कराया और अज्ञेय को वात्स्यायन कुलनाम दिया।
शिक्षा
प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा पिता की देख रेख में घर पर ही संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी और बांग्ला भाषा व साहित्य के अध्ययन के साथ हुई। 1925 में पंजाब से एंट्रेंस की परीक्षा पास की और उसके बाद मद्रास क्रिस्चन कॉलेज में दाखिल हुए। वहाँ से विज्ञान में इंटर की पढ़ाई पूरी कर 1927 में वे बी.एससी. करने के लिए लाहौर के फॅरमन कॉलेज के छात्र बने। 1929 में बी. एससी. करने के बाद एम.ए. में उन्होंने अंग्रेजी विषय लिया; पर क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने के कारण पढ़ाई पूरी न हो सकी।
 कार्यकाल
अज्ञेय ने छह वर्ष जेल और नज़रबंदी भोगने के बाद 1936 में कुछ दिनों तक आगरा के समाचार पत्र सैनिक के संपादन मंडल में रहे, और बाद में 1937-39 में विशाल भारत के संपादकीय विभाग में रहे। कुछ दिन ऑल इंडिया रेडियो में रहने के बाद अज्ञेय 1943 में सैन्य सेवा में प्रविष्ट हुए। 1946 में सैन्य सेवा से मुक्त होकर वह शुद्ध रुप से साहित्य में लगे। मेरठ और उसके बाद इलाहाबाद और अंत में दिल्ली को उन्होंने अपना केंद्र बनाया। अज्ञेय ने प्रतीक का संपादन किया। प्रतीक ने ही हिन्दी के आधुनिक साहित्य की नई धारणा के लेखकों, कवियों को एक नया सशक्त मंच दिया और साहित्यिक पत्रकारिता का नया इतिहास रचा। 1965 से 1968 तक अज्ञेय साप्ताहिक दिनमान के संपादक रहे। पुन: प्रतीक को नाम, नया प्रतीक देकर 1973 से निकालना शुरू किया और अपना अधिकाधिक समय लेखन को देने लगे। 1977 में उन्होंने दैनिक पत्र नवभारत टाइम्स के संपादन का भार संभाला। अगस्त 1979 में उन्होंने नवभारत टाइम्स से अवकाश ग्रहण किया। कार्यक्षेत्र
1930 से 1936 तक विभिन्न जेलों में कटे। 1936-37 में सैनिक और विशाल भारत नामक पत्रिकाओं का संपादन किया। 1943 से 1946 तक ब्रिटिश सेना में रहे; इसके बाद इलाहाबाद से प्रतीक नामक पत्रिका निकाली और ऑल इंडिया रेडियो की नौकरी स्वीकार की। देश-विदेश की यात्राएं कीं। जिसमें उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से लेकर जोधपुर विश्वविद्यालय तक में अध्यापन का काम किया। दिल्ली लौटे और दिनमान साप्ताहिक, नवभारत टाइम्स, अंग्रेजी पत्र वाक् और एवरीमैंस जैसी प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। 1980 में उन्होंने वत्सलनिधि नामक एक न्यास की स्थापना की जिसका उद्देश्य साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कार्य करना था। दिल्ली में ही 4 अप्रैल 1987 को उनकी मृत्यु हुई। 1964 में आँगन के पार द्वार पर उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ और 1978 में कितनी नावों में कितनी बार पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार। कृतित्व
अज्ञेय का कृतित्व बहुमुखी है और वह उनके समृद्ध अनुभव की सहज परिणति है। अज्ञेय की प्रारंभ की रचनाएँ अध्ययन की गहरी छाप अंकित करती हैं या प्रेरक व्यक्तियों से दीक्षा की गरमाई का स्पर्श देती हैं, बाद की रचनाएँ निजी अनुभव की परिपक्वता की खनक देती हैं। और साथ ही भारतीय विश्वदृष्टि से तादात्म्य का बोध कराती हैं। अज्ञेय स्वाधीनता को महत्त्वपूर्ण मानवीय मूल्य मानते थे, परंतु स्वाधीनता उनके लिए एक सतत जागरुक प्रक्रिया रही। अज्ञेय ने अभिव्यक्ति के लिए कई विधाओं, कई कलाओं और भाषाओं का प्रयोग किया, जैसे कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, यात्रा वृत्तांत, वैयक्तिक निबंध, वैचारिक निबंध, आत्मचिंतन, अनुवाद, समीक्षा, संपादन। उपन्यास के क्षेत्र में 'शेखर' एक जीवनी हिन्दी उपन्यास का एक कीर्तिस्तंभ बना। नाट्य-विधान के प्रयोग के लिए 'उत्तर प्रियदर्शी' लिखा, तो आंगन के पार द्वार संग्रह में वह अपने को विशाल के साथ एकाकार करने लगते हैं। प्रमुख कृतियाँ-
कविता-
भग्नदूत (1933), चिंता (1942), इत्यलम (1946), हरी घास पर क्षण भर (1949), बावरा अहेरी (1954), आंगन के पार द्वार (1961), पूर्वा (1965), कितनी नावों में कितनी बार (1967), क्योंकि मैं उसे जानता हूँ (1969), सागर मुद्रा (1970), पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ (1973)
उपन्यास- शेखर,एक जीवनी (1966), नदी के द्वीप (1952), अपने अपने अजनबी (1961)
पुरस्कार-
अज्ञेय को भारत में भारतीय पुरस्कार, अंतर्राष्ट्रीय 'गोल्डन रीथ' पुरस्कार आदि के अतिरिक्त साहित्य अकादमी पुरस्कार (1964) ज्ञानपीठ पुरस्कार (1978) से सम्मानित किया गया था। अज्ञेय की काव्य-भाषा-
भाषा क्या होती है इस सवाल का जवाब है- ‘अभिव्यक्ति का माध्यम’। पर भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति के लिए नहीं होती, बल्कि समूचे समाज की पहचान और उसकी संस्कृति की संवाहक भी होती है। भाषा के द्वारा ही कोई समाज अपनी अस्मिता को चिह्नित करता है। साहित्य में भाषा परिवर्तन की लंबी परंपरा है। समय और काल के अनुसार भाषा ने अपना स्वभाव बदला है । भाषा को बहता नीर कहा गया है जो हिन्दी भाषा पर पूरी तरह सटीक बैठता है। हिन्दी की व्यापकता विशालता इसी पर निर्भर है कि वह अन्य भाषाओं के शब्दों को बहुत सहजता से स्वयं में समाहित कर लेती है।
अज्ञेय की काव्य-भाषा जीवन की उन तहों तक पहुंचने में समर्थ है, जहाँ भावना अकेले खड़ी होती है। अपनी कविता से अज्ञेय उन आहत भावनाओं को सहलाते हैं। अपनी भाषा की जादूगरी से वह कविता में जो चमत्कार करते हैं, वह विद्वता दिखाने के लिए नहीं होता बल्कि प्रबुद्ध पाठकों को स्वयं से जोड़ने के लिए होता है। यह सच है कि अज्ञेय आम जीवन के कवि होते हुए भी भाषा के स्तर पर आम नहीं हैं। उनकी भाषा कुछ खास है । वह अपनी भाषाई चेतना के बल पर ही हिन्दी के अलावा तमाम भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवादित होते हैं और पढ़े जाते हैं। बारीकी से देखें तो उनकी कविता निम्न वर्ग की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति करते हुए भी उनकी भाषा में नहीं है। यह अज्ञेय की कमजोरी नहीं, उनकी विशेषता है। हाशिये पर खड़े समाज की पीड़ा को अहिंदी के प्रबुद्ध पाठक वर्ग तक विस्तारित करने में अज्ञेय की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।
अज्ञेय भाषासिद्ध कवि ही नहीं हैं बल्कि भाषा चिंतक भी हैं। उन्होंने भाषा के संबंध में लिखा भी है- “हम जो भाषा बोलते हैं उसके द्वारा हम वह संसार चुन लेते हैं जिसमें हम रहते हैं, या इसी बात को उलटकर यों कहें कि हम जो बोलते हैं उसके निमित्त से हम जीवन व्यवस्था के लिए चुन लिए जाते हैं, एक निर्दिष्ट स्थान और धर्म पा लेते हैं, उसे निबाहने के लिए स्वतंत्र हो जाते हैं।”[1] इतना ही नहीं अज्ञेय भाषा को मनुष्य और उसकी परंपरा के बीच की कड़ी भी स्वीकार करते हैं। इसलिए वह समाज और संस्कृति को जोड़कर देखने के पक्षधर हैं। यथा- “हम संस्कृति और समाज को दो भागों में बाँट लेते हैं और एक-दूसरे के साथ शोषण का रिश्ता हो जाता है, वहाँ से भाषा का अवमूल्यन शुरू हो जाता है, क्योंकि समाज का बड़ा हिस्सा छोटे हिस्से का शिकार हो जाता है और बड़े हिस्से की भाषा भी छोटे हिस्से के मुहावरे का शिकार हो जाती है।”
अज्ञेय की काव्य-भाषा हिन्दी साहित्य की उपलब्धि भी है और चुनौती भी। उनकी कविता-यात्रा को बारीक दृष्टि से देखें तो साफ पता चल जाएगा कि उसमें कई पड़ाव हैं, कई रंग हैं और रूप भी। अज्ञेय का व्यक्तित्व भी स्वयं कई विरोधाभासों से युक्त है। अज्ञेय के भीतर न जाने कितने अज्ञेय हैं। चरित्र की यह जटिलता उनकी भाषा में भी झलकती है। इसलिए कहीं सीधी-सीधी बात को कहने के लिए व्यंग्य का माध्यम अपनाते हैं।
अज्ञेय की काव्य-भाषा की सबसे बड़ी विशेषता शब्द-चयन की है। वह कभी भी बिना वजह शब्दों का प्रयोग कर वाक्य को भारी नहीं बनाते। बहुत ही सधे हुए शब्दों का प्रयोग करना उनके काव्य का उत्कर्ष है। उनकी एक कविता की पंक्ति है-
“मौन भी अभिव्यंजना है
जितना तुम्हारा सच है
उतना ही कहो।”
अज्ञेय का यह ‘मौन’ चुप्पी नहीं है। अभिव्यक्ति की फिजूलखर्ची पर विराम है। कम शब्दों में अधिक कहने की क्षमता अज्ञेय की व्यक्तिगत कवि क्षमता की भी परिचायक है। रामस्वरुप चतुर्वेदी ने इस संबंध में लिखा है –“इस दोहरे मौन ने उनकी कविता को एक असाधारण शक्ति दी है। इस ‘मौन’ में निष्क्रियता नहीं है, तनाव है जो सर्जनात्मकता का मूल उत्स है- जैसे अहिंसा कायरों की नहीं होती, सक्षम की होती है, उसी प्रकार मौन भी सहनशक्ति का प्रतीक है, असामर्थ्य का नहीं”
उनकी कविताओं की तमाम ऐसी पंक्तियाँ हैं जो इसी प्रकार कम शब्दों में बड़े लक्ष्यों को साधने में सफल हो जाती हैं। यथा-
“दुख सबको माँजता है
और
चाहे वह स्वयं मुक्ति देना न जाने, किन्तु
जिनको माँजता है
उन्हें यह सीख देता है कि,
सबको मुक्त रखें।”
मितभाषिता अज्ञेय का अस्त्र है और समर्पण भी। अंतर्मुखी स्वभाव के कारण अज्ञेय लोगों के प्रिय भी रहे और अप्रिय भी। अपनी आभिजात्य जीवन शैली के लिए पहचाने जाने वाले अज्ञेय भाषा में भी बहुत कम खुलते हैं। उनकी छोटी से छोटी कविता को भी खोलना कठिन है क्योंकि उसके अर्थ विस्तार की व्याख्या संभव नहीं है। उनकी एक चर्चित लेकिन बहुत छोटी कविता है-
“उड़ गयी चिड़िया
काँपी, फिर
थिर
हो गयी पत्ती।”
ऐसी ही एक कविता और-
“एक सहमा हुआ सन्नाटा
और दर्द
और दर्द
और दर्द ”
नई कविता वस्तुतः प्रयोगवाद के बाद नवीन काव्य-धारा का प्रवाहित रूप है जिसे हम प्रगतिवाद एवं प्रयोगवाद का विकासात्मक एवं पर्यवसनात्मक रूप मानते हैं। यही कारण है कि हम नयी कविता में प्रगतिवाद एवं प्रयोगवाद की गतिशीलता देख सकते हैं। दरअसल, नयी कविता स्वातंत्र्योत्तर भारत की नयी मनःस्थिति का सृजनात्मक रूपान्तरण है। व्यक्ति मन की नाना भावदशाओं, दुख-सुख, संघर्ष आदि की ईमानदार एवं प्रामाणिक अभिव्यक्ति ही नयी कविता का प्रतिपाद्य है। यही उसका नयापन है और यही है उसकी अपनी विशिष्टता जो उसे पूर्ववर्ती काव्य-धाराओं से अलगाती है। यहाँ जीवन यथार्थ को यथा तथ्य रूप में अभिव्यक्ति करने के प्रयास में वस्तु एवं रूप संबंधी पिछली सभी परिपाटियां टूटी हैं। परिवर्तनशीलता के स्वाभाविक नियमानुसार नई कविता का भी छठे, सातवें और आठवें दशक में क्रमिक विकास हुआ है। अज्ञेय अंधाधुंध प्रयोग में आ रहे प्रतीकों एवं उपमानों के विरोध में अपनी लेखनी चलाते हैं। नए-नए प्रतीक-बिंब आदि के प्रयोग की नूतन परंपरा को अज्ञेय प्रस्तुत करते हैं। वह लिखते हैं-
"वे उपमान मैले हो गये हैं
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा
छूट जाता है।"
विविधता की दृष्टि से भी देखें तो अज्ञेय तत्सम, तद्भव, देशज तथा ग्रामीण शब्दों का प्रयोग बहुत ही कलात्मक ढंग से करते हैं। उनकी कविता के इस पक्ष को रामस्वरूप चतुर्वेदी ने ‘विशुद्ध, बेलौस व अकृत्रिम’ कहा है। अपनी कविता में विशेष शब्दों के प्रयोग के कारण ही वह अपने समकालीन कवियों से बिल्कुल अलग नज़र आते हैं। अंजुरी, काठरी, सेंत, तलैया, कनबातियाँ, क्लौस, नीकी, घिग्घी, कौंध, सोनमछरी, लौ, महाजन जैसे शब्दों का चुनाव वे योजना के साथ करते हैं। कभी-कभी ये अटपटे शब्द उनकी कविता को नए अर्थों और संदर्भों से जोड़ देते हैं। उनकी कविता भाषा परिष्कार का काम नहीं करती बल्कि नई भाषा का सृजन करती है। उनके शब्दों के इस प्रयोग के बारे में रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं- “ये शब्द मात्र नहीं हैं, वरन, इसके माध्यम से नई काव्य-संवेदना का स्वरूप निर्धारित हुआ है॰॰॰प्रगतिवाद इसकी पृष्ठभूमि में है, और नई कविता का यह श्रोत है। पर केवल नारों से हटाकर यथार्थ अनुभावन के स्तर पर अज्ञेय इस अनुभूति के प्रथम सशक्त साक्षी हैं।”[
अज्ञेय प्रयोगवाद के पुरोधा हैं। वह सिर्फ कविता में नहीं जीवन में भी प्रयोग करते हैं। वह कृत्रिमता से अपनी दूरी रखते हुये प्राकृतिक साहचर्य के समर्थक हैं। उनके काव्य में शुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिन्दी जितनी सहजता से आती है, ग्रामीण शब्द भी उसी गंभीरता से आते हैं। वह शब्दों का प्रयोग चमत्कार के लिए नहीं आविष्कार के लिए करते हैं।
आलोचक, संपादक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को दिये गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा- “कविता निरंतर विशिष्ट शब्दावली को छोड़कर साधारण शब्दावली को अपनाने का प्रयत्न करती है। पद्य में प्रचलित संभावी कृत्रिम अन्वितियों को छोड़कर वह बोलचाल की भाषा की सहज अन्विति के निकटतम आने का प्रयत्न करती है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि रचनात्मक भाषा और बोलचाल की भाषा एक हो गई। कवि जाने-पहचाने शब्दों का प्रयोग करता है। उन्हें यथासंभव जाने-पहचाने या सहज ग्राह्य अनुक्रम में ही रखता है लेकिन उन्हीं शब्दों से वह नए अर्थ की सृष्टि करता है। यानि शब्द परिचित हैं, लेकिन शब्द प्रयोग विशिष्ट और रचनात्मक हो जाता है।"
अज्ञेय की काव्य-भाषा विचारों और अनुभूतियों का सृजन करती है। वह अभिव्यक्ति के नए आयामों की तलाश में बार-बार कठिन हो जाती है पर कभी भी रूढ़ नहीं होती है। उनकी कविता की एक विशेषता यह भी है कि वह बिंबों का संसार रचती है। हालांकि वह बिंबों को कभी भी कविता के भाव पर भारी नहीं होने देते फिर भी बिंब अपने पूरे वजूद के साथ उनकी कविता में मौजूद होते हैं। प्रकृति के मानवीकरण के प्रयोग में वह बिंबों का भरपूर सहयोग लेते हैं। इसके साथ ही प्रतीक योजना में भी अज्ञेय समकालीन कवियों से एकदम अलग हैं। वह बिंब और प्रतीक का नवीनतम प्रयोग करते हैं। प्रकृति पर आधारित उनकी कविताओं में इस नवीनता को महसूस किया जा सकता है। चाहे वह “आँगन के पार” हो या “दूज का चाँद” हो या फिर “बावरा अहेरी” हो। परंपरागत प्रतीकों का भी वह बहुत सुंदर प्रयोग करते हैं। “यह दीप अकेला” कविता में दीप व्यक्तित्व का प्रतीक है-
“यह दीप अकेला स्नेह भरा
यह गर्व भरा मदमाता पर
इसको भी पंक्ति को दे दो’
अज्ञेय परिवर्तन स्वभावी हैं। भाव हो या भाषा, वह एक जगह ठहरते नहीं। समयानुसार बदलाव करना उनकी प्रवृत्ति है। यह गलत नहीं है कि अज्ञेय ने कविता की भाषा में जो बदलाव या सुधार किया, वह उनके समकालीन और अब तक के कवियों के लिए अनुकरणीय है। अज्ञेय परंपरा का साथ कभी नहीं छोड़ते लेकिन रूढ़ हो गयी परंपरा को वह ढोते भी नहीं हैं। उनकी भाषा की बुनावट कविता की भावार्थ परंपरा और आधुनिकता के बीच नया रिश्ता कायम करती है। समय और स्थान देखकर शब्दों को उचित प्रयोग करना अज्ञेय के लिए कठिन नहीं है। वह शब्दों की सजावट के लिए भावनाओं को अवरुद्ध नहीं करते हैं। सुप्रसिद्ध आलोचक वागीश शुक्ल ने अज्ञेय की काव्य-भाषा के संदर्भ में लिखा है- “अज्ञेय की भाषा एक उपलब्धि है- उनके लिए भी उनके पाठक के लिए भी। उनके पास एक अत्यंत समृद्ध सांस्कृतिक अनुभव की पूंजी है, जो उन्हें लोक और शास्त्र, दोनों के अन्वेक्षण से प्राप्त हुई है। यह स्वाभाविक है कि इस अनुभव को वहन करने की समर्थ भाषा की सृष्टि उनकी रचना प्रक्रिया का सर्वाधिक सजग और निपुण पक्ष है।”
अपनी कविता में अज्ञेय पूरी तरह से प्रयोगधर्मी हैं। कविता के आदि से अंत तक शिल्प पर जैसी पकड़ अज्ञेय की है, वैसी अन्य कवियों में नहीं दिखती है। उनकी कविता में शब्द मौन और कोलाहल दोनों के भेद खोलने के लिए तत्पर रहते हैं, बस कोई उनका मूल्यांकन करने का साहस करे। इसमें कोई विवाद नहीं है कि अज्ञेय ने अपनी काव्य-भाषा को हिन्दी साहित्य में बहस और चिंतन का विषय बनाया। भाषा को नए तरीके से समझने की तमाम जिज्ञासा उनकी कविता में अपने पूरे वैभव के साथ मौजूद है। कबीर की ही तरह उनके लिए कविता एक कर्म की तरह है, जो ‘आंखिन देखी’ की पक्षधर है। कबीर जिस “आंखिन देखी” की बात करते हैं, अज्ञेय उसे “अनुभव” तक ले जाते हैं। इसलिए कभी-कभी उनकी कविता में उसकी ही बातों का विरोध भी दिखता है। एक तरफ तो वह लिखते हैं-‘ “मौन भी अभिव्यंजना है” तो वहीं दूसरी तरफ उनकी अभिव्यक्ति की उद्दाम लालसा यह कहने पर भी विवश करती है कि- “है, अभी कुछ और जो कहा नहीं गया।”

Saturday 12 March 2016

सत्यनारायण व्रत कथा मूल पाठ (संस्कृत)

प्रथमोऽध्याय: व्यास उवाच- एकदा नैमिषारण्ये ऋषय: शौनकादय:। पप्रच्छुर्मुनय: सर्वे सूतं पौराणिकं खलु॥1॥ ऋषय: ऊचु:- व्रतेन तपसा किं वा प्राप्यते वाञ्छितं फलम्‌। तत्सर्वं श्रोतुमिच्छाम: कथयस्व महामुने !॥2॥ सूत उवाच- नारदेनैव सम्पृष्टो भगवान्‌ कमलापति:। सुरर्षये यथैवाऽऽह तच्छृणुध्वं समाहिता:॥3॥ एकदा नारदो योगी परानुग्रहकाङ्‌क्षया। पर्यटन्‌ विविधान्‌ लोकान्‌ मत्र्य लोकमुपागत:॥4॥ तत्र दृष्ट्‌वा जनान्‌ सर्वान्‌ नाना क्लेशसमन्वितान्‌। नाना योनिसमुत्पन्नान्‌ क्लिश्यमानान्‌ स्वकर्मभि:॥5॥ केनोपायेन चैतेषां दु:खनाशो भवेद्‌ ध्रुवम्‌। इति सञ्चिन्त्य मनसा विष्णुलोकं गतस्तदा ॥6॥ तत्र नारायणं देवं कृष्णवर्णं चतुर्भुजम्‌। शङ्‌ख-चक्र- गदा-पद्‌म-वन मालाविभूषितम्‌॥7॥ दृष्ट्‌वा तं देवदेवेशं स्तोतुं समुपचक्रमे। नारद-उवाच- नमो वाङ्‌मनसाऽतीतरूपायाऽनन्तशक्तये॥8॥ आदि-मध्याऽन्तहीनाय निर्गुणाय गुणात्मने। सर्वेषामादिभूताय भक्तानामार्तिनाशिने॥9॥ श्रुत्वा स्तोत्रं ततो विष्णुर्नारदं प्रत्यभाषत। श्रीभगवानुवाच- किमर्थमागतोऽसि त्वं किं ते मनसि वर्तते॥10॥ कथयस्व महाभाग तत्सर्वं कथयामि ते। नारद उवाच- मत्र्यलोके जना: सर्वे नाना क्लेशसमन्विता:। नाना योनिसमुत्पन्ना: क्लिश्यन्ते पापकर्मभि:॥11॥ तत्कथं शमयेन्नाथ लघूपायेन तद्‌ वद। श्रोतुमिच्छामि तत्सर्वं कृपास्ति यदि ते मयि॥12॥ श्रीभगवानुवाच- साधु पृष्टं त्वया वत्स! लोकानुग्रहकाङ्‌क्षया। यत्कृत्वा मुच्यते मोहात्‌ तच्क्षुणुष्व वदामि ते॥13॥ व्रतमस्ति महत्पुण्यं स्वर्गे मत्र्ये च दुलर्भम्‌। तव स्नेहान्मया वत्स! प्रकाश: क्रियतेऽधुना॥14॥ सत्यनारायणस्यैतद्‌ व्रतं सम्यग्विधानत:। कृत्वा सद्य:सुखं भुक्त्वा परत्र मोक्षमाप्नुयात्‌॥15॥ तच्छ्रत्वा भगवद्‌ वाक्यं नारदो मुनिरब्रवीत्‌। नारद उवाच- किं फलं किं विधानं च कृतं केनैव तद्‌व्रतम्‌॥16॥ तत्सर्वं विस्तराद्‌ बूरहि कदा कार्यं व्रतं हि तत्‌। श्रीभगवानुवाच- दु:ख-शोकादिशमनं धन-धान्यप्रवर्धनम्‌॥17॥ सौभाग्य-सन्ततिकरं सर्वत्रा विजयप्रदम्‌। यस्मिन्‌ कस्मिन्‌ दिने मत्र्यो भक्ति श्रद्धासमन्वित:॥18॥ सत्यनारायणं देवं यजेच्चैव निशामुखे। ब्राह्मणैर्बान्धवैश्चैव सहितो धर्मतत्पर:॥19॥ नैवेद्यं भक्तितो दद्यात्‌ सपादं भक्तिसंयुतम्‌। रम्भाफलं घृतं क्षीरं गोधूमस्य च चूर्णकम्‌॥ 20॥ अभावे शालिचूर्णं वा शर्करा वा गुडं तथा। सपादं सर्वभक्ष्याणि चैकीकृत्य निवेदयेत्‌ ॥21॥ विप्राय दक्षिणां दद्यात्‌ कथां श्रुत्वा जनै: सह। ततश्च बन्धुभि: सार्धं विप्रांश्च प्रतिभोजयेत्‌॥22॥ प्रसादं भक्षयेद्‌ भक्त्यानृत्यगीतादिकं चरेत्‌। ततश्च स्वगृहं गच्छेत्‌ सत्यनारायणं स्मरन्‌॥ 23॥ एवं कृते मनुष्याणां वाञ्छासिद्धिर्भवेद्‌ ध्रुवम्‌। विशेषत: कलियुगे लघूपायोऽस्ति भूतले॥24॥ इति श्री स्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सूत-शौन-संवादे सत्यनारायण-व्रत कथायां प्रथमोऽध्याय:॥1॥ द्वितीयोऽध्याय:ᅠ सूत उवाच- अथाऽन्यत्‌ सम्प्रवक्ष्यामि कृतं येन पुरा व्रतम्‌। कश्चित्‌ काशीपुरे रम्ये ह्यासीद्‌ विप्रोऽतिनिर्धन:॥1॥ क्षुत्तृड्‌भ्यां व्याकुलो भूत्वा नित्यं बभ्राम भूतले। दु:खितं ब्राह्मणं दृष्ट्‌वा भगवान्‌ ब्राह्मणप्रिय:॥2॥ वृद्धब्राह्मणरूपस्तं पप्रच्छ द्विजमादरात्‌। किमर्थं भ्रमसे विप्र! महीं नित्यं सुदु: खित: ॥3॥ तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि कथ्यतां द्विजसत्तम!। ब्राह्मणोऽतिदरिद्रोऽहं भिक्षार्थं वै भ्रमे महीम्‌॥4॥ उपायं यदि जानासि कृपया कथय प्रभो! वृद्धब्राह्मण उवाच- सत्यनारायणो विष्णुर्वछितार्थफलप्रद:॥5॥ तस्य त्वं पूजनं विप्र कुरुष्व व्रतमुत्तमम्‌। यत्कृत्वा सर्वदु:खेभ्यो मुक्तो भवति मानव: ॥6॥ विधानं च व्रतस्यास्य विप्रायाऽऽभाष्य यत्नत:। सत्यनारायणोवृद्ध-स्तत्रौवान्तर धीयत॥7॥ तद्‌ व्रतं सङ्‌करिष्यामि यदुक्तं ब्राह्मणेन वै। इति सचिन्त्य विप्रोऽसौ रात्रौ निद्रां न लब्धवान्‌॥8॥ तत: प्रात: समुत्थाय सत्यनारायणव्रतम्‌। करिष्य इति सङ्‌कल्प्य भिक्षार्थमगद्‌ द्विज:॥9॥ तस्मिन्नेव दिने विप्र: प्रचुरं द्रव्यमाप्तवान्‌। तेनैव बन्धुभि: साद्‌र्धं सत्यस्य व्रतमाचरत्‌॥10॥ सर्वदु:खविनिर्मुक्त: सर्वसम्पत्‌ समन्वित:। बभूव स द्विज-श्रेष्ठो व्रतास्यास्य प्रभावत:॥11॥ तत: प्रभृतिकालं च मासि मासि व्रतं कृतम्‌। एवं नारायणस्येदं व्रतं कृत्वा द्विजोत्तम:॥12॥ सर्वपापविनिर्मुक्तो दुर्लभं मोक्षमाप्तवान्‌। व्रतमस्य यदा विप्रा: पृथिव्यां सचरिष्यन्ति॥13॥ तदैव सर्वदु:खं च मनुजस्य विनश्यति। एवं नारायणेनोक्तं नारदाय महात्मने ॥14॥ मया तत्कथितं विप्रा: किमन्यत्‌ कथयामि व:। ऋषय ऊचु:- तस्माद्‌ विप्राच्छुरतं केन पृथिव्यां चरितं मुने। तत्सर्वं श्रोतुमिच्छाम:श्रद्धाऽस्माकं प्रजायते॥15॥ सूत उवाच-श्रृणुध्वं मुनय:सर्वे व्रतं येन कृतं भुवि। एकदा स द्विजवरो यथाविभवविस्तरै:॥16॥ बन्धुभि: स्वजैन: सार्ध व्रतं कर्तुं समुद्यत:। एतस्मिन्नन्तरे काले काष्ठक्रेता समागमत्‌॥17॥ बहि: काष्ठं च संस्थाप्य विप्रस्य गृहमाययौ। तृष्णया पीडितात्मा च दृष्ट्‌वा विप्रकृतं व्रतम्‌ ॥18॥ प्रणिपत्य द्विजं प्राह किमिदं क्रियते त्वया। कृते किं फलमाप्नोति विस्तराद्‌ वद मे प्रभो! ॥19॥ विप्र उवाच-सत्यनाराणस्येदं व्रतं सर्वेप्सित- प्रदम्‌। तस्य प्रसादान्मे सर्वं धनधान्यादिकं महत्‌॥20॥ तस्मादेतत्‌ ब्रतं ज्ञात्वा काष्ठक्रेतातिहर्षित:। पपौ जलं प्रसादं च भुक्त्वा स नगरं ययौ॥21॥ सत्यनारायणं देवं मनसा इत्यचिन्तयत्‌। काष्ठं विक्रयतो ग्रामे प्राप्यते चाद्य यद्धनम्‌॥22॥ तेनैव सत्यदेवस्य करिष्ये व्रतमुत्तमम्‌। इति सञ्चिन्त्य मनसा काष्ठं धृत्वा तु मस्तके॥23॥ जगाम नगरे रम्ये धनिनां यत्र संस्थिति:। तद्‌दने काष्ठमूल्यं च द्विगुणं प्राप्तवानसौ॥24॥ तत: प्रसन्नहृदय: सुपक्वं कदलीफलम्‌। शर्करा-घृत-दुग्धं च गोधूमस्य च चूर्णकम्‌ ॥25॥ कृत्वैकत्र सपादं च गृहीत्वा स्वगृहं ययौ। ततो बन्धून्‌ समाहूय चकार विधिना व्रतम्‌॥26॥ तद्‌ व्रतस्य प्रभावेण धनपुत्रान्वितोऽभवत्‌। इह लोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ॥27॥ इति श्री स्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सूत शौनकसंवादे सत्यनारायण व्रतकथायां द्वितीयोऽध्याय: ॥2॥ तृतीयोऽध्याय:ᅠ सूत उवाच- पुनरग्रे प्रवक्ष्यामि श्रृणुध्वं मुनिसत्तमा:। पुरा चोल्कामुखो नाम नृपश्चासीन्महामति:॥1॥ जितेन्द्रिय: सत्यवादी ययौ देवालयं प्रति। दिने दिने धनं दत्त्वा द्विजान्‌ सन्तोषयत्‌ सुधी:॥2॥ भार्या तस्य प्रमुग्धा च सरोजवदना सती। भद्रशीलानदीतीरे सत्यस्य व्रतमाचरत्‌॥3॥ एतस्मिन्‌ समये तत्र साधुरेक: समागत:। वाणिज्यार्थं बहुधनैरनेकै: परिपूरिताम्‌ ॥4॥ नावं संस्थाप्य तत्तीरे जगाम नृपतिं प्रति। दृष्ट्‌वा स व्रतिनं भूपं पप्रच्छ विनयान्वित:॥5॥ साधुरुवाच-किमिदं कुरुषे राजन्‌! भक्तियुक्तेन चेतसा। प्रकाशं कुरु तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि साम्प्रतम्‌॥6॥ राजोवाच- पूजनं क्रियते साधो! विष्णोरतुलतेजस: । व्रतं च स्वजनै: सार्धं पुत्राद्यावाप्तिकाम्यया॥7॥ भूपस्य वचनं श्रुत्वा साधु: प्रोवाच सादरम्‌। सर्वं कथय में राजन्‌! करिष्येऽहं तवोदितम्‌॥8॥ ममापि सन्ततिर्नास्ति ह्येतस्माज्जायते ध्रुवम्‌। ततो निवृत्य वाणिज्यात्‌ सानन्दो गृहमागत:॥9॥ भार्यायै कथितं सर्वं व्रतं सन्ततिदायकम्‌। तदा व्रतं करिष्यामि यदा में सन्ततिर्भवेत्‌ ॥10॥ इति लीलावती प्राह स्वपत्नीं साधुसत्तम:। एकस्मिन्‌ दिवसे तस्य भार्या लीलावती सती॥11॥ भर्तृयुक्ताऽऽनन्दचित्ताऽभवद्धर्मपरायणा। गर्भिणी साऽभवत्तस्य भार्या सत्यप्रसादत: ॥12॥ दशमे मासि वै तस्या: कन्यारत्नमजायत। दिने दिने सा ववृधे शुक्लपक्षे यथा शशी॥13॥ नाम्ना कलावती चेति तन्नामकरणं कृतम्‌। ततो लीलावती प्राह स्वामिनं मधुरं वच:॥14॥ न करोषि किमर्थं वै पुरा सङ्‌कल्पितं व्रतम्‌। साधुरुवाच-विवाहसमये त्वस्या: करिष्यामि व्रतं प्रिये!॥15॥ इति भार्यां समाश्वास्य जगाम नगरं प्रति। तत: कलावती कन्या वृधपितृवेश्मनि॥16॥ दृष्ट्‌वा कन्यां तत: साधुर्नगरे सखिभि: सह। मन्त्रायित्वा दुरतं दूतं प्रेषयामास धर्मवित्‌॥17॥ विवाहार्थं च कन्याया वरं श्रेष्ठ विचारय। तेनाऽऽज्ञप्तश्च दूतोऽसौ काचनं नगरं ययौ ॥18॥ तस्मादेकं वणिक्पुत्रां समादायाऽऽगतो हि स:। दृष्ट्‌वा तु सुन्दरं बालं वणिक्‌पुत्रां गुणान्वितम्‌॥19॥ ज्ञातिभि-र्बन्धुभि: सार्धं परितुष्टेन चेतसा। दत्तवान्‌ साधुपुत्रााय कन्यां विधि-विधानत: ॥20॥ ततो भाग्यवशात्तेन विस्मृतं व्रतमुत्तमम्‌। विवाहसमये तस्यास्तेन रुष्टोऽभवत्‌ प्रभु: ॥21॥ तत: कालेन नियतो निजकर्मविशारद:। वाणिज्यार्थं तत: शीघ्रं जामातृसहितो वणिक्‌॥22॥ रत्नसारपुरे रम्ये गत्वा सिन्धुसमीपत:। वाणिज्यमकरोत्‌ साधुर्जामात्रा श्रीमता सह॥ 23॥ तौ गतौ नगरे रम्ये चन्द्रकेतोर्नृपस्य च। एतस्मिन्नेव काले तु सत्यनारायण: प्रभु: ॥24॥ भ्रष्टप्रतिज्ञमा-लोक्य शापं तस्मै प्रदत्तवान्‌। दारुणं कठिनं चास्य महद्‌दु:खं भविष्यिति॥25॥ एकस्मिन्‌ दिवसे राज्ञो धनमादाय तस्कर:। तत्रौव चागतश्चौरौ वणिजौ यत्र संस्थितौ॥26॥ तत्पश्चाद्‌ धावकान्‌ दूतान्‌ दृष्ट्‌वा भीतेन चेतसा। धनं संस्थाप्य तत्रौव स तु शिघ्रमलक्षित:॥27॥ ततो दूता: समायाता यत्रास्ते सज्जनो वणिक्‌। द्दष्ट्‌वा नृपधनं तत्र बद्‌ध्वाऽ ऽनीतौ वणिक्सुतौ॥28॥ हर्षेण धावमानाश्च ऊचुर्नृपसमीपत:। तस्करौ द्वौ समानीतौ विलोक्याऽऽज्ञापय प्रभो॥29॥ राज्ञाऽऽज्ञप्तास्तत: शीघ्रं दृढं बद्‌ध्वा तु तावुभौ। स्थापितौ द्वौ महादुर्गे कारागारेऽविचारत:॥30॥ मायया सत्यदेवस्य न श्रुतं कैस्तयोर्वच:। अतस्तयोर्धनं राज्ञा गृहीतं चन्द्रकेतुना॥31॥ तच्छापाच्च तयोर्गेहे भार्या चैवातिदु:खिता। चौरेणापहृतं सर्वं गृहे यच्च स्थितं धनम्‌॥32॥ आधिव्याधिसमायुक्ता क्षुत्पिपसातिदु:खिता। अन्नचिन्तापरा भूत्वा बभ्राम च गृहे गृहे॥33॥ कलावती तु कन्यापि बभ्राम प्रतिवासरम्‌। एकस्मिन्‌ दिवसे जाता क्षुधार्ता द्विजमन्दिरम्‌ ॥34॥ गत्वाऽपश्यद्‌ व्रतं तत्र सत्यनारायणस्य च। उपविश्य कथां श्रुत्वा वरं सम्प्रार्थ्य वाछितम्‌॥35॥ प्रसादभक्षणं कृत्वा ययौ रात्रौ गृहं प्रति। माता लीलावती कन्यां कथयामास प्रेमत:॥36॥ पुत्रि रात्रौ स्थिता कुत्रा किं ते मनसि वर्तते। कन्या कलावती प्राह मातरं प्रति सत्वरम्‌॥37॥ द्विजालये व्रतं मातर्दृष्टं वाञ्छितसिद्धिदम्‌। तच्छ्रुत्वा कन्यका वाक्यं व्रतं कर्तु समुद्यता॥38॥ सा तदा तु वणिग्भार्या सत्यनारायणस्य च। व्रतं चक्रे सैव साध्वी बन्धुभि: स्वजनै: सह॥39॥ भर्तृ-जामातरौ क्षिप्रमागच्छेतां स्वमाश्रमम्‌। इति दिव्यं वरं बब्रे सत्यदेवं पुन: पुन:॥40॥ अपराधं च मे भर्तुर्जामातु: क्षन्तुमर्हसि। व्रतेनानेन तुष्टोऽसौ सत्यनारायण: पुन:॥41॥ दर्शयामास स्वप्नं हि चन्द्रकेतुं नृपोत्तमम्‌। वन्दिनौ मोचय प्रातर्वणिजौ नृपसत्तम!॥42॥ देयं धनं च तत्सर्वं गृहीतं यत्त्वयाऽधुना। नो चेत्‌ त्वा नाशयिष्यामि सराज्यं-धन-पुत्रकम्‌॥43॥ एवमाभाष्य राजानं ध्यानगम्योऽभवत्‌ प्रभु:। तत: प्रभातसमये राजा च स्वजनै: सह॥44॥ उपविश्य सभामध्ये प्राह स्वप्नं जनं प्रति॥ बद्धौ महाजनौ शीघ्रं मोचय द्वौ वणिक्सुतौ॥45॥ इति राज्ञो वच: श्रुत्वा मोचयित्वा महाजनौ। समानीय नृपस्याऽग्रे प्राहुस्ते विनयान्विता:॥46॥ आनीतौ द्वौ वणिक्पुत्रौ मुक्त्वा निगडबन्धनात्‌। ततो महाजनौ नत्वा चन्द्रकेतुं नृपोत्तमम्‌॥47॥ स्मरन्तौ पूर्ववृत्तान्तं नोचतुर्भयविद्दलौ। राजा वणिक्सुतौ वीक्ष्य वच: प्रोवाच सादरम्‌॥48॥ दैवात्‌ प्राप्तं महद्‌दु:खमिदानीं नास्ति वै भयम्‌। तदा निगडसन्त्यागं क्षौरकर्माऽद्यकारयत्‌॥49॥ वस्त्लङ्‌कारकं दत्त्वा परितोष्य नृपश्च तौ। पुरस्कृत्य वणिक्पुत्रौ वचसाऽतोच्चयद्‌ भृशम्‌॥50॥ पुराऽऽनीतं तु यद्‌ द्रव्यं द्विगुणीकृत्य दत्तवान्‌। प्रोवाच तौ ततो राजा गच्छ साधो! निजाश्रमम्‌॥51॥ राजानं प्रणिपत्याऽऽह गन्तव्यं त्वत्प्रसादत:। इत्युक्त्वा तौ महावैश्यौ जग्मतु: स्वगृहं प्रति॥52॥ इति श्री स्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सूतशौनकसंवादे सत्यनारायणव्रतकथायां तृतीयोध्याय:। चतुर्थोध्याय:ᅠ सूत उवाच-यात्रां तु कृतवान्‌ साधुर्मङ्‌गलायनपूर्विकाम्‌। ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्त्वा तदा तु नगरं ययौ॥1॥ कियद्‌ दूरे गते साधौ सत्यनारायण: प्रभु:। जिज्ञासां कृतवान्‌ साधो! किमस्ति तव नौ स्थितम्‌॥2॥ ततो महाजनौ मत्तौ हेलया च प्रहस्य वै। कथं पृच्छसि भो दण्डिन्! मुद्रां नेतुं किमिच्छसि॥3॥ लता-पत्रादिकं चैव वर्तते तरणौ मम। निष्ठुरं च वच: श्रुत्वा सत्यं भवतु ते वच:॥4॥ एवमुक्त्वा गत: शीघ्रं दण्डी तस्य समीपत:। कियद्‌दूरे ततो गत्वा स्थित: सिन्धुसमीपत:॥5॥ गते दण्डिनि साधुश्च कृतनित्यक्रियस्तदा। उत्थितां तरणीं ट्टष्ट्‌वा विस्मयं परमं ययौ ॥6॥ दृष्ट्‌वा लतादिकं चैव मूच्र्छितो न्यपतद्‌ भुवि। लब्धसंज्ञो वणिक्‌ पुत्रास्ततश्चिन्ताऽन्वितोऽभवत्‌॥7॥ तदा तु दुहितु: कान्तो वचनं चेदमब्रवीत्‌॥ किमर्थं क्रियते शोक: शापो दत्तश्च दण्डिना॥8॥ शक्यतेऽनेन सर्वं हि कर्तुं चात्रा न संशय:। अतस्तच्छरणं याहि वञ्छितार्थो भविष्यति ॥9॥ जामातुर्वचनं श्रुत्वा तत्सकाशं गतस्तदा॥ द्दष्ट्‌वा च दण्डिनं भक्त्या नत्वा प्रोवाच सादरम्‌॥10॥ क्षमस्व चापराधं मे यदुक्तं तव सन्निधौ॥ एवं पुन: पुनर्नत्वा महाशोकाऽऽकुलोऽभवत्‌॥11॥ प्रोवाच वचनं दण्डी विलपन्तं विलोक्य च। मारोदी: श्रृणु मद्वाक्यं मम पूजाबहिर्मुख:॥12॥ ममाऽऽज्ञया च दुर्बुद्‌धे! लब्धं दु:खं मुहुर्मुहु:। तच्छ्रुत्वा भगवद्‌ वाक्यं व्रतं कर्तुं समुद्यत:॥13॥ साधुरुवाच-त्वन्मायामोहिता: सर्वे ब्रह्माद्यास्त्रिदिवौकस:। न जानन्ति गुणान्‌ रूपं तवाऽऽश्चर्यर्ममिदं प्रभो॥14॥ मूढोऽहं त्वां कथं जाने मोहितस्तव मायया। प्रसीद पूजमिष्यामि यथाविभवविस्तरै:॥15॥ पुरा वित्तैश्च तत्सर्वै: पाहि मां शरणागतम्‌। श्रुत्वा भक्तियुतं वाक्यं परितुष्टो जनार्दन:॥16॥ वरं च वाञ्छितं दत्त्वा तत्रौवाऽन्तर्दधे हरि:। ततो नौकां समारुह्य दृष्ट्‌वा वित्तप्रपूरिताम्‌॥17॥ कृपया सत्यदेवस्य सफलं वाञ्छितं मम। इत्युक्त्वा स्वजनै: सार्धं पूजां कृत्वा यथाविधि॥18॥ हर्षेण चाऽभवत्पूर्ण: सत्यदेवप्रसादत:। नावं संयोज्य यत्नेन स्वदेशगमनं कृतम्‌॥19॥ साधुर्जामातरं प्राह पश्य रत्नपुरीं मम। दूतं च प्रेषयामास निजवित्तस्य रक्षकम्‌॥20॥ दूतोऽसौ नगरं गत्वा साधुभार्यां विलोक्य च। प्रोवाच वाञ्छितंवाक्यं नत्वा बद्धाजलिस्तदा॥21॥ निकटे नगरस्यैव जामात्रा सहितो वणिक्‌। आगतो बन्धुवर्गैश्च वित्तैश्च बहुभिर्युत:॥22॥ श्रुत्वा दूतमुखाद्‌ वाक्यं महाहर्षवती सती। सत्यपूजां तत: कृत्वा प्रोवाच तनुजां प्रति॥23॥ ब्रजामि शीघ्रमागच्छ साधुसन्दर्शनाय च। इति मातृवच: श्रुत्वा व्रतं कृत्वा समासत:॥24॥ प्रसादं च परित्यज्य गता साऽपि पतिं प्रति। तेन रुष्ट: सत्यदेवो भर्तारं तरणीं तथा॥25॥ संहृत्य च धनै: सार्धं जले तस्मिन्नमज्जयत्‌। तत: कलावती कन्या न विलोक्य निजं पतिम्‌॥26॥ शोकेन महता तत्र रुदती चाऽपतद्‌ भुवि। दृष्ट्‌वा तथाविधां नौकां कन्यां च बहुदु:खिताम्‌ ॥27॥ भीतेन मनसा साधु: किमाश्चर्यमिदं भवेत्‌ चिन्त्यमानाश्च ते सर्वे बभूवुस्तरिवाहका:॥28॥ ततो लीलावती कन्या दृष्ट्‌वा सा विह्नलाऽभवत्‌। विललापऽतिदु: खेन भर्तारं चेदमब्रतीत्‌॥29॥ इदानीं नौकया सार्धं कथं सोऽभूदलक्षित:। न जाने कस्य देवस्य हेलया चैव सा हृता॥30॥ सत्यदेवस्य माहात्म्यं ज्ञातुं वा केन शक्यते। इत्युक्त्वा विलालपैवं ततश्च स्वजनै: सह॥31॥ ततौ लीलावती कन्या क्रोडे कृत्वा रुरोद ह। तत: कलावती कन्या नष्टे स्वामिनि दु:खिता॥32॥ गृहीत्वा पादुकां तस्याऽनुगन्तुं च मनोदधे। कन्यायाश्चरितं दृष्ट्‌वा सभार्य: सज्जनो वणिक्‌॥33॥ अतिशोकेन सन्तप्तश्चिन्तयामास धर्मवित्‌। हृतं वा सत्यदेवेन भ्रान्तोऽहं सत्यमायया॥34॥ सत्यपूजां करिष्यामि यथाविभवविस्तरम्‌। इति सर्वान्‌ समाहूय कथयित्वा मनोरथम्‌॥35॥ नत्वा च दण्डवद्‌ भूमौ सत्यदेवं पुन: पुन:। ततस्तुष्ट: सत्यदेवो दीनानां परिपालक:॥36॥ जगाद वचनं चैनं कृपया भक्तवत्सल:। त्यक्त्त्वा प्रसादं ते कन्या पतिं दुरष्टुं समागता॥37॥ अतोऽदृष्टोभवत्तस्या: कन्यकाया: पतिध्र्रुवम्‌। गृहं गत्वा प्रसादं च भुक्त्वा साऽऽयाति चेत्पुन:॥38॥ लब्धभत्ररी सुता साधो! भविष्यति न संशय:। कन्यका तादृशं वाक्यं श्रुत्वा गगनमण्डलात्‌॥39॥ क्षिपंर तदा गृहं गत्वा प्रसादं च बुभोज सा। तत्‌ पश्चात्पुनरागत्य सा ददर्श निजं पतिम्‌॥40॥ तत: कलावती कन्या जगाद पितरं प्रति। इदानीं च गृहं याहि विलम्बं कुरुषे कथम्‌॥41॥ तच्छ्रुत्वा कन्यकावाक्यं सन्तुष्टोऽभूद वणिक्सुत:। पूजनं सत्यदेवस्य कृत्वा विधिविधानत:॥42॥ धनैर्बन्धुगणै: सार्धं जगाम निजमन्दिरम्‌॥ पौर्णमास्यां च सङ्‌क्रान्तौ कृतवान्‌ सत्यपूजनम्‌॥43॥ इह लोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ॥44॥ इति श्री सकन्दपुराणे रेवाखण्डे सूतशौनकसंवादे सत्यनारायणव्रतकथायां चतुर्थोऽध्याय:॥4॥ पञ्चमोध्याय:ᅠ सूत उवाच- अथान्यत् संप्रवक्ष्यामि श्रृणध्वं मुनिसत्तमा:॥ आसीत्‌ तुङ्‌गध्वजो राजा प्रजापालनतत्पर:॥1॥ प्रसादं सत्यदेवस्य त्यक्त्त्वा दु:खमवाप स:। एकदा स वनं गत्वा हत्वा बहुविधान्‌ पशून्‌॥2॥ आगत्य वटमूलं च दृष्ट्‌वा सत्यस्य पूजनम्‌। गोपा: कुर्वन्ति सन्तुष्टा भक्तियुक्ता: सबन्धवा:॥3॥ राजा दृष्ट्‌वा तु दर्पेण न गतो न ननाम स:। ततो गोपगणा: सर्वे प्रसादं नृपसन्निधौ ॥4॥ संस्थाप्य पुनरागत्य भुक्त्वा सर्वे यथेप्सितम्‌। तत: प्रसादं संत्यज्य राजा दु:खमवाप स:॥5॥ तस्य पुत्राशतं नष्टं धनधान्यादिकं च यत्‌। सत्यदेवेन तत्सर्वं नाशितं मम निश्चितम्‌॥6॥ अतस्तत्रैव गच्छामि यत्र देवस्य पूजनन्‌। मनसा तु विनिश्चित्य ययौ गोपालसन्निधौ॥7॥ ततोऽसौ सत्यदेवस्य पूजां गोपगणै: सह। भक्तिश्रद्धान्वितो भूत्वा चकार विधिना नृप:॥8॥ सत्यदेवप्रसादेन धनपुत्राऽन्वितोऽभवत्‌। इह लोके सुखं भुक्त्वा पश्चात्‌ सत्यपुरं ययौ॥9॥ य इदं कुरुते सत्यव्रतं परम दुर्लभम्‌। श्रृणोति च कथां पुण्यां भक्तियुक्तां फलप्रदाम्‌॥10॥ धनधान्यादिकं तस्य भवेत्‌ सत्यप्रसादत:। दरिद्रो लभते वित्तं बद्धो मुच्येत बन्धनात्‌॥11॥ भीतो भयात्‌ प्रमुच्येत सत्यमेव न संशय:। ईप्सितं च फलं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ब्रजेत्‌॥12॥ इति व: कथितं विप्रा: सत्यनारायणव्रतम्‌। यत्कृत्वा सर्वदु:खेभ्यो मुक्तो भवति मानव:॥13॥ विशेषत: कलियुगे सत्यपूजा फलप्रदा। केचित्कालं वदिष्यन्ति सत्यमीशं तमेव च॥14॥ सत्यनारायणं केचित्‌ सत्यदेवं तथापरे। नाना रूपधरो भूत्वा सर्वेषामीप्सितप्रद:॥15॥ भविष्यति कलौ सत्यव्रतरूपी सनातन:। श्रीविष्णुना धृतं रूपं सर्वेषामीप्सितप्रदम्‌॥16॥ श्रृणोति य इमां नित्यं कथा परमदुर्लभाम्‌। तस्य नश्यन्ति पापानि सत्यदेव प्रसादत:॥17॥ व्रतं यैस्तु कृतं पूर्वं सत्यनारायणस्य च। तेषां त्वपरजन्मानि कथयामि मुनीश्वरा:॥18॥ शतानन्दो महा-प्राज्ञ: सुदामा ब्राह्मणोऽभवत्‌। तस्मिन्‌ जन्मनि श्रीकृष्णं ध्यात्वा मोक्षमवाप ह॥19॥ काष्ठभारवहो भिल्लो गुहराजो बभूव ह। तस्मिन्‌ जन्मनि श्रीरामसेवया मोक्षमाप्तवान्‌॥20॥ उल्कामुखो महाराजो नृपो दशरथो-ऽभवत्‌। श्रीरङ्‌नाथं सम्पूज्य श्रीवैकुण्ठं तदाऽगमत्‌॥21॥ धार्मिक: सत्यसन्धश्च साधुर्मोरध्वजोऽभवत्‌।

Sunday 17 January 2016

बिजली का आविष्कार

निश्चित ही बिजली का आविष्कार बेंजामिन फ्रेंक्लिन ने किया लेकिन बेंजामिन फ्रेंक्लिन अपनी एक किताब में लिखते हैं कि एक रात मैं संस्कृत का एक वाक्य पढ़ते-पढ़ते सो गया। उस रात मुझे स्वप्न में संस्कृत के उस वचन का अर्थ और रहस्य समझ में आया जिससे मुझे मदद मिली। महर्षि अगस्त्य एक वैदिक ऋषि थे। महर्षि अगस्त्य राजा दशरथ के राजगुरु थे। इनकी गणना सप्तर्षियों में की जाती है। ऋषि अगस्त्य ने 'अगस्त्य संहिता' नामक ग्रंथ की रचना की। आश्चर्यजनक रूप से इस ग्रंथ में विद्युत उत्पादन से संबंधित सूत्र मिलते हैं- संस्थाप्य मृण्मये पात्रे ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्‌। छादयेच्छिखिग्रीवेन चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥ दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:। संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्‌॥ -अगस्त्य संहिता अर्थात : एक मिट्टी का पात्र लें, उसमें ताम्र पट्टिका (Copper Sheet) डालें तथा शिखिग्रीवा (Copper sulphate) डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (wet saw dust) लगाएं, ऊपर पारा (mercury‌) तथा दस्त लोष्ट (Zinc) डालें, फिर तारों को मिलाएंगे तो उससे मित्रावरुणशक्ति (Electricity) का उदय होगा। अगस्त्य संहिता में विद्युत का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग (Electroplating) के लिए करने का भी विवरण मिलता है। उन्होंने बैटरी द्वारा तांबे या सोने या चांदी पर पॉलिश चढ़ाने की विधि निकाली अत: अगस्त्य को कुंभोद्भव (Battery Bone) कहते हैं। — मित्रो भारत ने दुनिया को और क्या क्या दिया है ? जरूर देखे अपने बच्चो को बताएं !