Monday, 5 December 2016

प्रकृति के सुकुमार कवि- सुमित्रानंदन पंत

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प्रस्तावना-

बीसवीं शताब्दी के भारतीय अंतस् और मानस को समझने के लिए महाकवि पंत के
वृहद रचनाकाश को जानना बहुत आवश्यक है। वीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन,
ज्योत्स्ना, ग्राम्या, युगांत, उत्तरा, अतिमा, चिदंबरा (भारतीय ज्ञानपीठ से
 सम्मानित) कला और बूढ़ा चाँद (साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत) तथा
लोकायतन जैसे प्रबंध-काव्य के रचयिता पंत प्रगीत प्रतिभा के पुरोगामी सर्जक
 तथा कला-विदग्ध कवि के रूप में, व्यापक पाठक वर्ग में समादृत रहे हैं,
यद्यपि उन्होंने नाटक, एकांकी, रेडियो-रूपक, उपन्यास, कहानी आदि विधाओं में
 भी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। पंत जी की समस्त रचनाएँ भारतीय जीवन की समृद्ध
 सांस्कृतिक चेतना से गहन साक्षात्कार कराती हैं। उन्होंने खड़ी बोली की
प्रकृति और उसके पुरुषार्थ, शक्ति और सामर्थ्य की पहचान का अभिमान ही नहीं
चलाया, उसे अभिनंदित भी किया। उनके प्रकृति वर्णन में हृदयस्पर्शी तन्मयता,
 उर्मिल लयात्मकता और प्रकृत प्रसन्नता का विपुल भाव है।

जीवन परिचय-

सुमित्रानंदन पंत का जन्म 20 मई 1900 में कौसानी, उत्तराखण्ड, भारत में हुआ
 था। जन्म के छह घंटे बाद ही माँ को क्रूर मृत्यु ने छीन लिया। शिशु को
उसकी दादी ने पाला पोसा। शिशु का नाम रखा गया गुसाईं दत्त। ज्ञानपीठ
पुरस्कार से सम्मानित हिन्दी के सुकुमार कवि पंत की प्रारंभिक शिक्षा
कौसानी गांव के स्कूल में हुई, फिर वह वाराणसी आ गए और 'जयनारायण हाईस्कूल'
 में शिक्षा पाई, इसके बाद उन्होंने इलाहाबाद में 'म्योर सेंट्रल कॉलेज'
में प्रवेश लिया, पर इंटरमीडिएट की परीक्षा में बैठने से पहले ही 1921 में
असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए।

प्रारम्भिक जीवन­­-

कवि के बचपन का नाम 'गुसाईं दत्त' था। स्लेटी छतों वाले पहाड़ी घर, आंगन के
 सामने आडू, खुबानी के पेड़, पक्षियों का कलरव, सर्पिल पगडण्डियां, बांज,
बुरांश व चीड़ के पेड़ों की बयार व नीचे दूर दूर तक मखमली कालीन सी पसरी
कत्यूर घाटी व उसके उपर हिमालय के उत्तंग शिखरों और दादी से सुनी कहानियों व
 शाम के समय सुनायी देने वाली आरती की स्वर लहरियों ने गुसाईं दत्त को बचपन
 से ही कवि हृदय बना दिया था। क्योंकि जन्म के छ: घण्टे बाद ही इनकी माँ का
 निधन हो गया था, इसीलिए प्रकृति की यही रमणीयता इनकी मां बन गयी। प्रकृति
के इसी ममतामयी छांव में बालक गुसाईं दत्त धीरे- धीरे यहां के सौन्दर्य को
शब्दों के माध्यम से काग़ज़ में उकेरने लगा। पिता 'गंगादत्त' उस समय कौसानी
 चाय बग़ीचे के मैनेजर थे। उनके भाई संस्कृत व अंग्रेज़ी के अच्छे जानकार
थे, जो हिन्दी व कुमाँऊनी में कविताएं भी लिखा करते थे। यदाकदा जब उनके भाई
 अपनी पत्नी को मधुर कंठ से कविताएं सुनाया करते तो बालक गुसाईं दत्त
किवाड़ की ओट में चुपचाप सुनता रहता और उसी तरह के शब्दों की तुकबन्दी कर
कविता लिखने का प्रयास करता। बालक गुसाईं दत्त की प्राइमरी तक की शिक्षा
कौसानी के 'वर्नाक्यूलर स्कूल' में हुई। इनके कविता पाठ से मुग्ध होकर
स्कूल इंसपैक्टर ने इन्हें उपहार में एक पुस्तक दी थी। ग्यारह साल की उम्र
में इन्हें पढा़ई के लिये अल्मोडा़ के 'गवर्नमेंट हाईस्कूल' में भेज दिया
गया। कौसानी के सौन्दर्य व एकान्तता के अभाव की पूर्ति अब नगरीय सुख वैभव
से होने लगी। अल्मोडा़ की ख़ास संस्कृति व वहां के समाज ने गुसाईं दत्त को
अन्दर तक प्रभावित कर दिया। सबसे पहले उनका ध्यान अपने नाम पर गया। और
उन्होंने लक्ष्मण के चरित्र को आदर्श मानकर अपना नाम गुसाईं दत्त से बदल कर
 'सुमित्रानंदन' कर लिया। कुछ समय बाद नेपोलियन के युवावस्था के चित्र से
प्रभावित होकर अपने लम्बे व घुंघराले बाल रख लिये।

साहित्यिक परिचय-

 अल्मोड़ा में तब कई साहित्यिक व सांस्कृतिक गतिविधियां होती रहती थीं
जिसमें पंत अक्सर भाग लेते रहते। स्वामी सत्यदेव जी के प्रयासों से नगर में
 ‘शुद्ध साहित्य समिति‘ नाम से एक पुस्तकालय चलता था। इस पुस्तकालय से पंत
जी को उच्च कोटि के विद्वानों का साहित्य पढ़ने को मिलता था। कौसानी में
साहित्य के प्रति पंत जी में जो अनुराग पैदा हुआ वह यहां के साहित्यिक
वातावरण में अब अंकुरित होने लगा। कविता का प्रयोग वे सगे सम्बन्धियों को
पत्र लिखने में करने लगे। शुरुआती दौर में उन्होंने 'बागेश्वर के मेले',
'वकीलों के धनलोलुप स्वभाव' व 'तम्बाकू का धुंआ' जैसी कुछ छुटपुट कविताएं
लिखी। आठवीं कक्षा के दौरान ही उनका परिचय प्रख्यात नाटककार गोविन्द बल्लभ
पंत, श्यामाचरण दत्त पंत, इलाचन्द्र जोशी व हेमचन्द्र जोशी से हो गया था।
अल्मोड़ा से तब हस्तलिखित पत्रिका ‘सुधाकर‘ व ‘अल्मोड़ा अखबार‘ नामक पत्र
निकलता था जिसमें वे कविताएं लिखते रहते। अल्मोड़ा में पंत जी के घर के ठीक
 उपर स्थित गिरजाघर की घण्टियों की आवाज़ उन्हें अत्यधिक सम्मोहित करती
थीं। अक़्सर प्रत्येक रविवार को वे इस पर एक कविता लिखते। ‘गिरजे का घण्टा‘
 शीर्षक से उनकी यह कविता सम्भवतः पहली रचना है-


नभ की उस नीली चुप्पी पर घण्टा है एक टंगा सुन्दर
जो घड़ी घड़ी मन के भीतर कुछ कहता रहता बज बज कर


दुबले पतले व सुन्दर काया के कारण पंत जी को स्कूल के नाटकों में अधिकतर
स्त्री पात्रों का अभिनय करने को मिलता। 1916 में जब वे जाड़ों की
छुट्टियों में कौसानी गये तो उन्होंने ‘हार‘ शीर्षक से 200 पृष्ठों का 'एक
खिलौना' उपन्यास लिख डाला। जिसमें उनके किशोर मन की कल्पना के नायक
नायिकाओं व अन्य पात्रों की मौजूदगी थी। कवि पंत का किशोर कवि जीवन कौसानी व
 अल्मोड़ा में ही बीता था। इन दोनों जगहों का वर्णन भी उनकी कविताओं में
मिलता है।


स्वतंत्रता संग्राम में योगदान-

1921 के असहयोग आंदोलन में उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया था, पर देश के
स्वतंत्रता संग्राम की गंभीरता के प्रति उनका ध्यान 1930 के नमक सत्याग्रह
के समय से अधिक केंद्रित होने लगा, इन्हीं दिनों संयोगवश उन्हें कालाकांकर
में ग्राम जीवन के अधिक निकट संपर्क में आने का अवसर मिला। उस ग्राम जीवन
की पृष्ठभूमि में जो संवेदन उनके हृदय में अंकित होने लगे, उन्हें वाणी
देने का प्रयत्न उन्होंने युगवाणी (1938) और ग्राम्या (1940) में किया।
यहाँ से उनका काव्य, युग का जीवन-संघर्ष तथा नई चेतना का दर्पण बन जाता है।
 स्वर्णकिरण तथा उसके बाद की रचनाओं में उन्होंने किसी आध्यात्मिक या
दार्शनिक सत्य को वाणी न देकर व्यापक मानवीय सांस्कृतिक तत्त्व को
अभिव्यक्ति दी, जिसमें अन्न प्राण, मन आत्मा, आदि मानव-जीवन के सभी स्वरों
की चेतना को संयोजित करने का प्रयत्न किया गया।


काव्य एवं साहित्य की साधना­­­-

 पंतजी संघर्षों के एक लंबे दौर से गुज़रे, जिसके दौरान स्वयं को काव्य एवं
 साहित्य की साधना में लगाने के लिए उन्होंने अपनी आजीविका सुनिश्चित करने
का प्रयास किया। बहुत पहले ही उन्होंने यह समझ लिया था कि उनके जीवन का
लक्ष्य और कार्य यदि कोई है, तो वह काव्य साधना ही है। पंत की भाव-चेतना
महाकवि रबींद्रनाथ ठाकुर, महात्मा गांधी और श्री अरबिंदो घोष की रचनाओं से
प्रभावित हुई। साथ ही कुछ मित्रों ने मार्क्सवाद के अध्ययन की ओर भी उन्हें
 प्रवृत किया और उसके विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पक्षों को उन्होंने गहराई से
देखा व समझा। 1950 में रेडियो विभाग से जुड़ने से उनके जीवन में एक ओर मोड़
 आया। सात वर्ष उन्होंने 'हिन्दी चीफ़ प्रोड्यूसर' के पद पर कार्य किया और
उसके बाद साहित्य सलाहकार के रूप में कार्यरत रहे।


युग प्रवर्तक कवि- सुमित्रानंदन पंत आधुनिक हिन्दी साहित्य के एक युग
प्रवर्तक कवि हैं। उन्होंने भाषा को निखार और संस्कार देने, उसकी सामर्थ्य
को उद्घाटित करने के अतिरिक्त नवीन विचार व भावों की समृद्धि दी। पंत सदा
ही अत्यंत सशक्त और ऊर्जावान कवि रहे हैं। सुमित्रानंदन पंत को मुख्यत:
प्रकृति का कवि माना जाने लगा। लेकिन पंत वास्तव में मानव-सौंदर्य और
आध्यात्मिक चेतना के भी कुशल कवि थे।


रचनाकाल­­-

 पंत का पल्लव, ज्योत्सना तथा गुंजन का रचनाकाल काल (1926-33) उनकी सौंदर्य
 एवं कला-साधना का काल रहा है। वह मुख्यत: भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण की
 आदर्शवादिता से अनुप्राणिक थे। किंतु युगांत (1937) तक आते-आते बहिर्जीवन
के खिंचाव से उनके भावात्मक दृष्टिकोण में परिवर्तन आए। पन्तजी की रचनाओं
का क्षेत्र बहुविध और बहुआयामी है। आपकी रचनाओं सा संक्षिप्त परिचय इस
प्रकार है-


महाकाव्य-

'लोकायतन' कवि सुमित्रानन्दन पन्त का महाकाव्य है। कवि की विचारधारा और
लोक-जीवन के प्रति उसकी प्रतिबद्धता इस रचना में अभिव्यक्त हुई है। इस पर
कवि को 'सोवियत रूस' तथा उत्तर प्रदेश शासन से पुरस्कार प्राप्त हुआ है।
पंत जी को अपने माता-पिता के प्रति असीम-सम्मान था। इसलिए उन्होंने अपने दो
 महाकाव्यों में से एक महाकाव्य 'लोकायतन' अपने पूज्य पिता को और दूसरा
महाकाव्य 'सत्यकाम' अपनी स्नेहमयी माता को, जो इन्हें जन्म देते ही स्वर्ग
सिधार गईं, समर्पित किया है।[3] अपनी माँ सरस्वती देवी[4] को स्मरण करते
हुए इन्होंने अपना दूसरा महाकाव्य 'सत्यकाम' जिन शब्दों के साथ उन्हें
समर्पित किया है, वे द्रष्टव्य हैं-


    मुझे छोड़ अनगढ़ जग में तुम हुई अगोचर,
    भाव-देह धर लौटीं माँ की ममता से भर !
    वीणा ले कर में, शोभित प्रेरणा-हंस पर,
    साध चेतना-तंत्रि रसौ वै सः झंकृत कर
    खोल हृदय में भावी के सौन्दर्य दिगंतर !


काव्य-संग्रह -

 'वीणा', 'पल्लव' तथा 'गुंजन' छायावादी शैली में सौन्दर्य और प्रेम की
प्रस्तुति है। 'युगान्त', युगवाणी' तथा 'ग्राम्या' में पन्तजी के
प्रगतिवादी और यथार्थपरक भावों का प्रकाशन हुआ है। 'स्वर्ण-किरण',
'स्वर्ण-धूलि', 'युगपथ', 'उत्तरा', 'अतिमा', तथा 'रजत-रश्मि' संग्रहों में
अरविन्द-दर्शन का प्रभाव परिलक्षित होता है। इनके अतिरिक्त 'कला और बूढ़ा
चाँद' तथा 'चिदम्बरा' भी आपकी सम्मानित रचनाएँ हैं। पन्तजी की अन्तर्दृष्टि
 तथा संवेदनशीलता ने जहाँ उनके भाव-पक्ष को गहराई और विविधता प्रदान की
हैं, वहीं उनकी कल्पना-प्रबलता और अभिव्यक्ति-कौशल ने उनके कला-पक्ष को
सँवारा है।


रचनाएँ-

 चिदंबरा 1958 का प्रकाशन है। इसमें युगवाणी (1937-38) से अतिमा (1948) तक
कवि की 10 कृतियों से चुनी हुई 196 कविताएं संकलित हैं। एक लंबी
आत्मकथात्मक कविता आत्मिका भी इसमें सम्मिलित है, जो वाणी (1957) से ली गई
है। चिदंबरा पंत की काव्य चेतना के द्वितीय उत्थान की परिचायक है। प्रमुख
रचनाएं इस प्रकार है:-
कविताएं- वीणा (1919), ग्रंथि (1920), पल्लव (1926), गुंजन (1932), युगांत
(1937), युगवाणी (1938), ग्राम्या (1940), स्वर्णकिरण (1947),  
स्वर्णधूलि (1947, उत्तरा (1949), युगपथ (1949), चिदंबरा (1958), कला और
बूढ़ा चाँद (1959) लोकायतन (1964), गीतहंस (1969)।
कहानियाँ- पाँच कहानियाँ (1938)
उपन्यास- हार (1960),
आत्मकथात्मक संस्मरण- साठ वर्ष : एक रेखांकन (1963)।


साहित्यिक विशेषताएँ­-

छायावाद को मुख्यतः ‘प्रेरणा का काव्य’ मानने वाले इस कोमल-प्राण कवि ने
'हार' नामक उपन्यास के लेखन से अपनी रचना-यात्रा आरंभ की थी, जो ‘मुक्ताभ’
के प्रणयन तक जारी रही। मुख्यतः कवि-रूप में प्रसिद्ध होने के अलावा ये
'प्रथम कोटि के आलोचक, विचारक और गद्यकार' थे। इन्होंने मुक्तक, लंबी
कविता, गद्य-नाटिका, पद्य-नाटिका, रेडियो-रूपक, एकांकी, उपन्यास, कहानी
इत्यादि जैसी विभिन्न विधाओं में अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं और लोकायतन
तथा सत्यकाम जैसे वृहद महाकाव्य भी लिखे हैं। विधाओं की विविधता की दृष्टि
से इनके द्वारा संपादित 'रूपाभ पत्रिका' (सन् 1938 ईस्वी) की संपादकीय
टिप्पणियाँ और मधुज्वाल की भावानुवादाश्रित कविताएँ भी कम महत्त्वपूर्ण
नहीं हैं। आशय यह कि विभिन्न विधाओं में उपलब्ध इनके विपुल साहित्य को एक
नातिदीर्घ रचना-संचयन में प्रस्तुत करना कठिन कार्य है। रचनाओं की विपुलता
के साथ ही यह भी लक्ष्य करने योग्य है कि प्रकृति और नारी–सौंदर्य से
रचनारंभ करनेवाले पंत जी मानव, सामान्य जन और समग्र मानवता की कल्याण-कामना
 से सदैव जुड़े रहे। इनकी मान्यता थी कि ‘आने वाला मानव निश्चिय ही न पूर्व
 का होगा, न पश्चिम का।’ ये सार्वभौम मनुष्यता के विश्वासी थे। अध्यात्म,
अंतश्चेतना, प्रेम, समदिक् संचरण इत्यादि जैसा संकल्पनाओं से भावाकुल पंत
के लेखन-चिन्तन का केन्द्र-बिन्दु हमेशा ‘लोक’ पक्ष ही रहा, जो लोकायतन के
नामकरण से भी संकेतित होता है। पंत-काव्य का तृतीय चरण, जो ‘नवीन सगुण’ के
नाम से चर्चित है और जिसे हम शुभैषणा-सदिच्छा का स्वस्ति-काव्य कह सकते
हैं, इसी ‘लोक’ के मंगल पर केन्द्रित है।


प्रकृति-प्रेमी कवि-

'उच्छास' से लेकर 'गुंजन' तक की कविता का सम्पूर्ण भावपट कवि की
सौन्दर्य-चेतना का काल है। सौन्दर्य-सृष्टि के उनके प्रयत्न के मुख्य
उपादान हैं- प्रकृति, प्रेम और आत्म-उद्बोधन। अल्मोड़ा की प्राकृतिक सुषमा
ने उन्हें बचपन से ही अपनी ओर आकृष्ट किया। ऐसा प्रतीत होता है जैसे मां की
 ममता से रहित उनके जीवन में मानो प्रकृति ही उनकी मां हो। उत्तर प्रदेश के
 अल्मोड़ा के पर्वतीय अंचल की गोद में पले बढ़े पंत जी स्वयं यह स्वीकार
करते हैं कि उस मनोरम वातावरण का इनके व्यक्तित्व पर गंभीर प्रभाव पड़ा।
कवि या कलाकार कहां से प्रेरणा ग्रहण करता है इस बारे में अपने विचार
व्यक्त करते हुए पंत जी कहते हैं, संभवत: प्रेरणा के स्रोत भीतर न होकर
अधिकतर बाहर ही रहते हैं। अपनी काव्य यात्रा में पन्त जी सदैव सौन्दर्य को
खोजते नजर आते हें। शब्द, शिल्प, भाव और भाषा के द्वारा कवि पंत प्रकृति और
 प्रेम के उपादानों से एक अत्यंत सूक्ष्य और हृदयकारी सौन्दर्य की सृष्टि
करते हैं, किंतु उनके शब्द केवल प्रकृति-वर्णन के अंग न होकर एक दूसरे अर्थ
 की गहरी व्यंजना से संयोजित हैं। उनकी रचनाओं में छायावाद एवं रहस्यवाद का
 समावेश भी है। साथ ही शेली, कीट्स, टेनिसन आदि अंग्रेज़ी कवियों का प्रभाव
 भी है। मेरे मूक कवि को बाहर लाने का सर्वाधिक श्रेय मेरी जन्मभूमि के उस
नैसर्गिक सौन्दर्य को है जिसकी गोद में पलकर मैं बड़ा हुआ जिसने छुटपन से
ही मुझे अपने रूपहले एकांत में एकाग्र तन्मयता के रश्मिदोलन में झुलाया,
रिझाया तथा कोमल कण्ठ वन-पखियों ने साथ बोलना कुहुकन सिखाया। पंतजी को जन्म
 के उपरांत ही मातृ-वियोग सहना पड़ा।


भाव पक्ष -

 पन्तजी के भाव-पक्ष का एक प्रमुख तत्त्व उनका मनोहारी प्रकृति चित्रण है।
कौसानी की सौन्दर्यमयी प्राकृतिक छटा के बीच पन्तजी ने अपनी बाल-कल्पनाओं
को रूपायित किया था। प्रकृति के प्रति उनका सहज आकर्षण उनकी रचनाओं के बहुत
 बड़े भाग को प्रभावित किए हुए है। प्रकृति के विविध आयामों और भंगिमाओं को
 हम पन्त के काव्य में रूपांकित देखते हैं। वह मानवी-कृता सहेली है,
भावोद्दीपिका है, अभिव्यक्ति का आलम्बन है और अलंकृता प्रकृति-वधू भी है।
इसके अतिरिक्त प्रकृति कवि पन्त के लिए उपदेशिका और दार्शनिक चिन्तन का
आधार भी बनी है। कवि पन्त को सामान्यतया कोमल-कान्त भावनाओं और सौन्दर्य का
 कवि समझा जाता है किन्तु जीवन के यथार्थों से सामना होने पर कवि में जीवन
के प्रति यथार्थपरक और दार्शनिक दृष्टिकोण का विकास होता गया है। सर्वप्रथम
 पन्त मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित हुए, जिसका प्रभाव उनकी
'युगान्त', 'युगवाणी' आदि रचनाओं में परिलक्षित होता है। गाँधीवाद से भी आप
 प्रभावित दिखते हैं। 'लोकायतन' में यह प्रभाव विद्यमान है। महर्षि अरविन्द
 की विचारधारा का भी आप पर गहरा प्रभाव पड़ा। 'गीत-विहग' रचना इसका उदाहरण
है। सौन्दर्य और उल्लास के कवि पन्त को जीवन का निराशामय विरूप-पक्ष भी
भोगना पड़ा और इसकी प्रतिक्रिया 'परिवर्तन' नामक रचना में दृष्टिगत होती
है-


    अखिल यौवन के रंग उभार हड्डियों के हिलते कंकाल,
    खोलता इधर जन्म लोचन मूँदती उधर मृत्यु क्षण-क्षण।


पन्तजी के काव्य में मानवतावादी दृष्टि को भी सम्मानित स्थान प्राप्त है।
वह मानवीय प्रतिष्ठा और मानव-जाति के भावी विकास में दृढ़ विश्वास रखते
हैं। 'द्रुमों की छाया' और 'प्रकृति की माया' को छोड़कर जो पन्त 'बाला के
बाल-जाल' में 'लोचन उलझाने' को प्रस्तुत नहीं थे, वही मानव को विधाता की
सुन्दरतम कृति स्वीकार करते हैं-


    सुन्दर है विहग सुमन सुन्दर, मानव तुम सबसे सुन्दरतम।
    वह चाहते हैं कि देश, जाति और वर्गों में विभाजित मनुष्य की केवल एक ही
 पहचान हो - मानव।


भाषा-शैली-

कवि पन्त का भाषा पर असाधारण अधिकार है। भाव और विषय के अनुकूल मार्मिक
शब्दावली उनकी लेखनी से सहज प्रवाहित होती है। यद्यपि पन्त की भाषा का एक
विशिष्ट स्तर है फिर भी वह विषयानुसार परिवर्तित होती है। पन्तजी के काव्य
में एकाधिक शैलियों का प्रयोग हुआ है। प्रकृति-चित्रण में भावात्मक,
आलंकारिक तथा दृश्य विधायनी शैली का प्रयोग हुआ है। विचार-प्रधान तथा
दार्शनिक विषयों की शैली विचारात्मक एवं विश्लेषणात्मक भी हो गई है। इसके
अतिरिक्त प्रतीक-शैली का प्रयोग भी हुआ है। सजीव बिम्ब-विधान तथा
ध्वन्यात्मकता भी आपकी रचना-शैली की विशेषताएँ हैं।


अलंकरण-

पन्तजी ने परम्परागत एवं नवीन, दोनों ही प्रकार के अलंकारों का भव्यता से
प्रयोग किया है। बिम्बों की मौलिकता तथा उपमानों की मार्मिकता हृदयहारिणी
है। रूपक, उपमा, सांगरूपक, मानवीकरण, विशेषण-विपर्यय तथा ध्वन्यर्थ-व्यंजना
 का आकर्षक प्रयोग आपने किया है।


छंद-

 पन्तजी ने परम्परागत छन्दों के साथ-साथ नवीन छंदों की भी रचना की है। आपने
 गेयता और ध्वनि-प्रभाव पर ही बल दिया है, मात्राओं और वर्णों के क्रम तथा
संख्या पर नहीं। प्रकृति के चितेरे तथा छायावादी कवि के रूप में पन्तजी का
स्थान निश्चय ही विशिष्ट है। हिन्दी की लालित्यपूर्ण और संस्कारित खड़ी
बोली भी पन्तजी की देन है। पन्तजी विश्व-साहित्य में भी अपना स्थान बना गए
हैं।


पुरस्कार-

 सुमित्रानंदन पंत को पद्म भूषण (1961) और ज्ञानपीठ पुरस्कार (1968) से
सम्मानित किया गया। कला और बूढ़ा चाँद के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार,
लोकायतन पर 'सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार' एवं 'चिदंबरा' पर इन्हें 'भारतीय
ज्ञानपीठ पुरस्कार' प्राप्त हुआ।


संग्रहालय-

उत्तराखंड राज्य के कौसानी में महाकवि पंत की जन्म स्थली को सरकारी तौर पर
अधिग्रहीत कर उनके नाम पर एक राजकीय संग्रहालय बनाया गया है, जिसकी देखरेख
एक स्थानीय व्यक्ति करता है। इस स्थल के प्रवेश द्वार से लगे भवन की छत पर
महाकवि की मूर्ति स्थापित है। वर्ष 1990 में स्थापित इस मूर्ति का अनावरण
वयोवृद्ध साहित्यकार तथा इतिहासवेत्ता पंडित नित्यनंद मिश्र द्वारा उनके
जन्म दिवस 20 मई को किया गया था। महाकवि सुमित्रानंदन पंत का पैत्रक ग्राम
यहां से कुछ ही दूरी पर है; परन्तु वह आज भी अनजाना तथा तिरस्कृत है।
संग्रहालय में महाकवि द्वारा उपयोग में लायी गयी दैनिक वस्तुएँ यथा शॉल,
दीपक, पुस्तकों की अलमारी तथा महाकवि को समर्पित कुछ सम्मान-पत्र, पुस्तकें
 तथा हस्तलिपि सुरक्षित हैं।


मृत्यु-

कौसानी चाय बाग़ान के व्यवस्थापक के परिवार में जन्मे महाकवि सुमित्रानंदन
पंत की मृत्यु 28 दिसम्बर, 1977 को इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश में हुई।
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