Sunday 4 December 2016

अज्ञेय, सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन

प्रस्तावना-सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" (7 मार्च, 1911- 4 अप्रैल, 1987) को प्रतिभासम्पन्न कवि, शैलीकार, कथा-साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ देने वाले कथाकार, ललित-निबन्धकार, सम्पादक और सफल अध्यापक के रूप में जाना जाता है। इनका जन्म 7 मार्च 1911 को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कुशीनगर नामक ऐतिहासिक स्थान में हुआ। बचपन लखनऊ, कश्मीर, बिहार और मद्रास में बीता। बी.एस.सी. करके अंग्रेजी में एम.ए. करते समय क्रांतिकारी आन्दोलन से जुड़कर बम बनाते हुए पकडे गये और वहाँ से फरार भी हो गए। सन्1930 ई. के अन्त में पकड़ लिये गये। अज्ञेय प्रयोगवाद एवं नई कविता को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं। अनेक जापानी हाइकु कविताओं को अज्ञेय ने अनूदित किया। बहुआयामी व्यक्तित्व के एकान्तमुखी प्रखर कवि होने के साथ-साथ वे एक अच्छे फोटोग्राफर और सत्यान्वेषी पर्यटक भी थे।
 व्यक्तिगत जीवन
अज्ञेय जी के पिता पण्डित हीरानंद शास्त्री प्राचीन लिपियों के विशेषज्ञ थे। इनका बचपन इनके पिता की नौकरी के साथ कई स्थानों की परिक्रमा करते हुए बीता। कुशीनगर में अज्ञेय जी का जन्म 7 मार्च, 1911 को हुआ था। लखनऊ, श्रीनगर, जम्मू घूमते हुए इनका परिवार 1919 में नालंदा पहुँचा। नालंदा में अज्ञेय के पिता ने अज्ञेय से हिन्दी लिखवाना शुरू किया। इसके बाद 1921 में अज्ञेय का परिवार ऊटी पहुँचा ऊटी में अज्ञेय के पिता ने अज्ञेय का यज्ञोपवीत कराया और अज्ञेय को वात्स्यायन कुलनाम दिया।
शिक्षा
प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा पिता की देख रेख में घर पर ही संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी और बांग्ला भाषा व साहित्य के अध्ययन के साथ हुई। 1925 में पंजाब से एंट्रेंस की परीक्षा पास की और उसके बाद मद्रास क्रिस्चन कॉलेज में दाखिल हुए। वहाँ से विज्ञान में इंटर की पढ़ाई पूरी कर 1927 में वे बी.एससी. करने के लिए लाहौर के फॅरमन कॉलेज के छात्र बने। 1929 में बी. एससी. करने के बाद एम.ए. में उन्होंने अंग्रेजी विषय लिया; पर क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने के कारण पढ़ाई पूरी न हो सकी।
 कार्यकाल
अज्ञेय ने छह वर्ष जेल और नज़रबंदी भोगने के बाद 1936 में कुछ दिनों तक आगरा के समाचार पत्र सैनिक के संपादन मंडल में रहे, और बाद में 1937-39 में विशाल भारत के संपादकीय विभाग में रहे। कुछ दिन ऑल इंडिया रेडियो में रहने के बाद अज्ञेय 1943 में सैन्य सेवा में प्रविष्ट हुए। 1946 में सैन्य सेवा से मुक्त होकर वह शुद्ध रुप से साहित्य में लगे। मेरठ और उसके बाद इलाहाबाद और अंत में दिल्ली को उन्होंने अपना केंद्र बनाया। अज्ञेय ने प्रतीक का संपादन किया। प्रतीक ने ही हिन्दी के आधुनिक साहित्य की नई धारणा के लेखकों, कवियों को एक नया सशक्त मंच दिया और साहित्यिक पत्रकारिता का नया इतिहास रचा। 1965 से 1968 तक अज्ञेय साप्ताहिक दिनमान के संपादक रहे। पुन: प्रतीक को नाम, नया प्रतीक देकर 1973 से निकालना शुरू किया और अपना अधिकाधिक समय लेखन को देने लगे। 1977 में उन्होंने दैनिक पत्र नवभारत टाइम्स के संपादन का भार संभाला। अगस्त 1979 में उन्होंने नवभारत टाइम्स से अवकाश ग्रहण किया। कार्यक्षेत्र
1930 से 1936 तक विभिन्न जेलों में कटे। 1936-37 में सैनिक और विशाल भारत नामक पत्रिकाओं का संपादन किया। 1943 से 1946 तक ब्रिटिश सेना में रहे; इसके बाद इलाहाबाद से प्रतीक नामक पत्रिका निकाली और ऑल इंडिया रेडियो की नौकरी स्वीकार की। देश-विदेश की यात्राएं कीं। जिसमें उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से लेकर जोधपुर विश्वविद्यालय तक में अध्यापन का काम किया। दिल्ली लौटे और दिनमान साप्ताहिक, नवभारत टाइम्स, अंग्रेजी पत्र वाक् और एवरीमैंस जैसी प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। 1980 में उन्होंने वत्सलनिधि नामक एक न्यास की स्थापना की जिसका उद्देश्य साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कार्य करना था। दिल्ली में ही 4 अप्रैल 1987 को उनकी मृत्यु हुई। 1964 में आँगन के पार द्वार पर उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ और 1978 में कितनी नावों में कितनी बार पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार। कृतित्व
अज्ञेय का कृतित्व बहुमुखी है और वह उनके समृद्ध अनुभव की सहज परिणति है। अज्ञेय की प्रारंभ की रचनाएँ अध्ययन की गहरी छाप अंकित करती हैं या प्रेरक व्यक्तियों से दीक्षा की गरमाई का स्पर्श देती हैं, बाद की रचनाएँ निजी अनुभव की परिपक्वता की खनक देती हैं। और साथ ही भारतीय विश्वदृष्टि से तादात्म्य का बोध कराती हैं। अज्ञेय स्वाधीनता को महत्त्वपूर्ण मानवीय मूल्य मानते थे, परंतु स्वाधीनता उनके लिए एक सतत जागरुक प्रक्रिया रही। अज्ञेय ने अभिव्यक्ति के लिए कई विधाओं, कई कलाओं और भाषाओं का प्रयोग किया, जैसे कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, यात्रा वृत्तांत, वैयक्तिक निबंध, वैचारिक निबंध, आत्मचिंतन, अनुवाद, समीक्षा, संपादन। उपन्यास के क्षेत्र में 'शेखर' एक जीवनी हिन्दी उपन्यास का एक कीर्तिस्तंभ बना। नाट्य-विधान के प्रयोग के लिए 'उत्तर प्रियदर्शी' लिखा, तो आंगन के पार द्वार संग्रह में वह अपने को विशाल के साथ एकाकार करने लगते हैं। प्रमुख कृतियाँ-
कविता-
भग्नदूत (1933), चिंता (1942), इत्यलम (1946), हरी घास पर क्षण भर (1949), बावरा अहेरी (1954), आंगन के पार द्वार (1961), पूर्वा (1965), कितनी नावों में कितनी बार (1967), क्योंकि मैं उसे जानता हूँ (1969), सागर मुद्रा (1970), पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ (1973)
उपन्यास- शेखर,एक जीवनी (1966), नदी के द्वीप (1952), अपने अपने अजनबी (1961)
पुरस्कार-
अज्ञेय को भारत में भारतीय पुरस्कार, अंतर्राष्ट्रीय 'गोल्डन रीथ' पुरस्कार आदि के अतिरिक्त साहित्य अकादमी पुरस्कार (1964) ज्ञानपीठ पुरस्कार (1978) से सम्मानित किया गया था। अज्ञेय की काव्य-भाषा-
भाषा क्या होती है इस सवाल का जवाब है- ‘अभिव्यक्ति का माध्यम’। पर भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति के लिए नहीं होती, बल्कि समूचे समाज की पहचान और उसकी संस्कृति की संवाहक भी होती है। भाषा के द्वारा ही कोई समाज अपनी अस्मिता को चिह्नित करता है। साहित्य में भाषा परिवर्तन की लंबी परंपरा है। समय और काल के अनुसार भाषा ने अपना स्वभाव बदला है । भाषा को बहता नीर कहा गया है जो हिन्दी भाषा पर पूरी तरह सटीक बैठता है। हिन्दी की व्यापकता विशालता इसी पर निर्भर है कि वह अन्य भाषाओं के शब्दों को बहुत सहजता से स्वयं में समाहित कर लेती है।
अज्ञेय की काव्य-भाषा जीवन की उन तहों तक पहुंचने में समर्थ है, जहाँ भावना अकेले खड़ी होती है। अपनी कविता से अज्ञेय उन आहत भावनाओं को सहलाते हैं। अपनी भाषा की जादूगरी से वह कविता में जो चमत्कार करते हैं, वह विद्वता दिखाने के लिए नहीं होता बल्कि प्रबुद्ध पाठकों को स्वयं से जोड़ने के लिए होता है। यह सच है कि अज्ञेय आम जीवन के कवि होते हुए भी भाषा के स्तर पर आम नहीं हैं। उनकी भाषा कुछ खास है । वह अपनी भाषाई चेतना के बल पर ही हिन्दी के अलावा तमाम भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवादित होते हैं और पढ़े जाते हैं। बारीकी से देखें तो उनकी कविता निम्न वर्ग की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति करते हुए भी उनकी भाषा में नहीं है। यह अज्ञेय की कमजोरी नहीं, उनकी विशेषता है। हाशिये पर खड़े समाज की पीड़ा को अहिंदी के प्रबुद्ध पाठक वर्ग तक विस्तारित करने में अज्ञेय की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।
अज्ञेय भाषासिद्ध कवि ही नहीं हैं बल्कि भाषा चिंतक भी हैं। उन्होंने भाषा के संबंध में लिखा भी है- “हम जो भाषा बोलते हैं उसके द्वारा हम वह संसार चुन लेते हैं जिसमें हम रहते हैं, या इसी बात को उलटकर यों कहें कि हम जो बोलते हैं उसके निमित्त से हम जीवन व्यवस्था के लिए चुन लिए जाते हैं, एक निर्दिष्ट स्थान और धर्म पा लेते हैं, उसे निबाहने के लिए स्वतंत्र हो जाते हैं।”[1] इतना ही नहीं अज्ञेय भाषा को मनुष्य और उसकी परंपरा के बीच की कड़ी भी स्वीकार करते हैं। इसलिए वह समाज और संस्कृति को जोड़कर देखने के पक्षधर हैं। यथा- “हम संस्कृति और समाज को दो भागों में बाँट लेते हैं और एक-दूसरे के साथ शोषण का रिश्ता हो जाता है, वहाँ से भाषा का अवमूल्यन शुरू हो जाता है, क्योंकि समाज का बड़ा हिस्सा छोटे हिस्से का शिकार हो जाता है और बड़े हिस्से की भाषा भी छोटे हिस्से के मुहावरे का शिकार हो जाती है।”
अज्ञेय की काव्य-भाषा हिन्दी साहित्य की उपलब्धि भी है और चुनौती भी। उनकी कविता-यात्रा को बारीक दृष्टि से देखें तो साफ पता चल जाएगा कि उसमें कई पड़ाव हैं, कई रंग हैं और रूप भी। अज्ञेय का व्यक्तित्व भी स्वयं कई विरोधाभासों से युक्त है। अज्ञेय के भीतर न जाने कितने अज्ञेय हैं। चरित्र की यह जटिलता उनकी भाषा में भी झलकती है। इसलिए कहीं सीधी-सीधी बात को कहने के लिए व्यंग्य का माध्यम अपनाते हैं।
अज्ञेय की काव्य-भाषा की सबसे बड़ी विशेषता शब्द-चयन की है। वह कभी भी बिना वजह शब्दों का प्रयोग कर वाक्य को भारी नहीं बनाते। बहुत ही सधे हुए शब्दों का प्रयोग करना उनके काव्य का उत्कर्ष है। उनकी एक कविता की पंक्ति है-
“मौन भी अभिव्यंजना है
जितना तुम्हारा सच है
उतना ही कहो।”
अज्ञेय का यह ‘मौन’ चुप्पी नहीं है। अभिव्यक्ति की फिजूलखर्ची पर विराम है। कम शब्दों में अधिक कहने की क्षमता अज्ञेय की व्यक्तिगत कवि क्षमता की भी परिचायक है। रामस्वरुप चतुर्वेदी ने इस संबंध में लिखा है –“इस दोहरे मौन ने उनकी कविता को एक असाधारण शक्ति दी है। इस ‘मौन’ में निष्क्रियता नहीं है, तनाव है जो सर्जनात्मकता का मूल उत्स है- जैसे अहिंसा कायरों की नहीं होती, सक्षम की होती है, उसी प्रकार मौन भी सहनशक्ति का प्रतीक है, असामर्थ्य का नहीं”
उनकी कविताओं की तमाम ऐसी पंक्तियाँ हैं जो इसी प्रकार कम शब्दों में बड़े लक्ष्यों को साधने में सफल हो जाती हैं। यथा-
“दुख सबको माँजता है
और
चाहे वह स्वयं मुक्ति देना न जाने, किन्तु
जिनको माँजता है
उन्हें यह सीख देता है कि,
सबको मुक्त रखें।”
मितभाषिता अज्ञेय का अस्त्र है और समर्पण भी। अंतर्मुखी स्वभाव के कारण अज्ञेय लोगों के प्रिय भी रहे और अप्रिय भी। अपनी आभिजात्य जीवन शैली के लिए पहचाने जाने वाले अज्ञेय भाषा में भी बहुत कम खुलते हैं। उनकी छोटी से छोटी कविता को भी खोलना कठिन है क्योंकि उसके अर्थ विस्तार की व्याख्या संभव नहीं है। उनकी एक चर्चित लेकिन बहुत छोटी कविता है-
“उड़ गयी चिड़िया
काँपी, फिर
थिर
हो गयी पत्ती।”
ऐसी ही एक कविता और-
“एक सहमा हुआ सन्नाटा
और दर्द
और दर्द
और दर्द ”
नई कविता वस्तुतः प्रयोगवाद के बाद नवीन काव्य-धारा का प्रवाहित रूप है जिसे हम प्रगतिवाद एवं प्रयोगवाद का विकासात्मक एवं पर्यवसनात्मक रूप मानते हैं। यही कारण है कि हम नयी कविता में प्रगतिवाद एवं प्रयोगवाद की गतिशीलता देख सकते हैं। दरअसल, नयी कविता स्वातंत्र्योत्तर भारत की नयी मनःस्थिति का सृजनात्मक रूपान्तरण है। व्यक्ति मन की नाना भावदशाओं, दुख-सुख, संघर्ष आदि की ईमानदार एवं प्रामाणिक अभिव्यक्ति ही नयी कविता का प्रतिपाद्य है। यही उसका नयापन है और यही है उसकी अपनी विशिष्टता जो उसे पूर्ववर्ती काव्य-धाराओं से अलगाती है। यहाँ जीवन यथार्थ को यथा तथ्य रूप में अभिव्यक्ति करने के प्रयास में वस्तु एवं रूप संबंधी पिछली सभी परिपाटियां टूटी हैं। परिवर्तनशीलता के स्वाभाविक नियमानुसार नई कविता का भी छठे, सातवें और आठवें दशक में क्रमिक विकास हुआ है। अज्ञेय अंधाधुंध प्रयोग में आ रहे प्रतीकों एवं उपमानों के विरोध में अपनी लेखनी चलाते हैं। नए-नए प्रतीक-बिंब आदि के प्रयोग की नूतन परंपरा को अज्ञेय प्रस्तुत करते हैं। वह लिखते हैं-
"वे उपमान मैले हो गये हैं
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा
छूट जाता है।"
विविधता की दृष्टि से भी देखें तो अज्ञेय तत्सम, तद्भव, देशज तथा ग्रामीण शब्दों का प्रयोग बहुत ही कलात्मक ढंग से करते हैं। उनकी कविता के इस पक्ष को रामस्वरूप चतुर्वेदी ने ‘विशुद्ध, बेलौस व अकृत्रिम’ कहा है। अपनी कविता में विशेष शब्दों के प्रयोग के कारण ही वह अपने समकालीन कवियों से बिल्कुल अलग नज़र आते हैं। अंजुरी, काठरी, सेंत, तलैया, कनबातियाँ, क्लौस, नीकी, घिग्घी, कौंध, सोनमछरी, लौ, महाजन जैसे शब्दों का चुनाव वे योजना के साथ करते हैं। कभी-कभी ये अटपटे शब्द उनकी कविता को नए अर्थों और संदर्भों से जोड़ देते हैं। उनकी कविता भाषा परिष्कार का काम नहीं करती बल्कि नई भाषा का सृजन करती है। उनके शब्दों के इस प्रयोग के बारे में रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं- “ये शब्द मात्र नहीं हैं, वरन, इसके माध्यम से नई काव्य-संवेदना का स्वरूप निर्धारित हुआ है॰॰॰प्रगतिवाद इसकी पृष्ठभूमि में है, और नई कविता का यह श्रोत है। पर केवल नारों से हटाकर यथार्थ अनुभावन के स्तर पर अज्ञेय इस अनुभूति के प्रथम सशक्त साक्षी हैं।”[
अज्ञेय प्रयोगवाद के पुरोधा हैं। वह सिर्फ कविता में नहीं जीवन में भी प्रयोग करते हैं। वह कृत्रिमता से अपनी दूरी रखते हुये प्राकृतिक साहचर्य के समर्थक हैं। उनके काव्य में शुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिन्दी जितनी सहजता से आती है, ग्रामीण शब्द भी उसी गंभीरता से आते हैं। वह शब्दों का प्रयोग चमत्कार के लिए नहीं आविष्कार के लिए करते हैं।
आलोचक, संपादक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को दिये गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा- “कविता निरंतर विशिष्ट शब्दावली को छोड़कर साधारण शब्दावली को अपनाने का प्रयत्न करती है। पद्य में प्रचलित संभावी कृत्रिम अन्वितियों को छोड़कर वह बोलचाल की भाषा की सहज अन्विति के निकटतम आने का प्रयत्न करती है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि रचनात्मक भाषा और बोलचाल की भाषा एक हो गई। कवि जाने-पहचाने शब्दों का प्रयोग करता है। उन्हें यथासंभव जाने-पहचाने या सहज ग्राह्य अनुक्रम में ही रखता है लेकिन उन्हीं शब्दों से वह नए अर्थ की सृष्टि करता है। यानि शब्द परिचित हैं, लेकिन शब्द प्रयोग विशिष्ट और रचनात्मक हो जाता है।"
अज्ञेय की काव्य-भाषा विचारों और अनुभूतियों का सृजन करती है। वह अभिव्यक्ति के नए आयामों की तलाश में बार-बार कठिन हो जाती है पर कभी भी रूढ़ नहीं होती है। उनकी कविता की एक विशेषता यह भी है कि वह बिंबों का संसार रचती है। हालांकि वह बिंबों को कभी भी कविता के भाव पर भारी नहीं होने देते फिर भी बिंब अपने पूरे वजूद के साथ उनकी कविता में मौजूद होते हैं। प्रकृति के मानवीकरण के प्रयोग में वह बिंबों का भरपूर सहयोग लेते हैं। इसके साथ ही प्रतीक योजना में भी अज्ञेय समकालीन कवियों से एकदम अलग हैं। वह बिंब और प्रतीक का नवीनतम प्रयोग करते हैं। प्रकृति पर आधारित उनकी कविताओं में इस नवीनता को महसूस किया जा सकता है। चाहे वह “आँगन के पार” हो या “दूज का चाँद” हो या फिर “बावरा अहेरी” हो। परंपरागत प्रतीकों का भी वह बहुत सुंदर प्रयोग करते हैं। “यह दीप अकेला” कविता में दीप व्यक्तित्व का प्रतीक है-
“यह दीप अकेला स्नेह भरा
यह गर्व भरा मदमाता पर
इसको भी पंक्ति को दे दो’
अज्ञेय परिवर्तन स्वभावी हैं। भाव हो या भाषा, वह एक जगह ठहरते नहीं। समयानुसार बदलाव करना उनकी प्रवृत्ति है। यह गलत नहीं है कि अज्ञेय ने कविता की भाषा में जो बदलाव या सुधार किया, वह उनके समकालीन और अब तक के कवियों के लिए अनुकरणीय है। अज्ञेय परंपरा का साथ कभी नहीं छोड़ते लेकिन रूढ़ हो गयी परंपरा को वह ढोते भी नहीं हैं। उनकी भाषा की बुनावट कविता की भावार्थ परंपरा और आधुनिकता के बीच नया रिश्ता कायम करती है। समय और स्थान देखकर शब्दों को उचित प्रयोग करना अज्ञेय के लिए कठिन नहीं है। वह शब्दों की सजावट के लिए भावनाओं को अवरुद्ध नहीं करते हैं। सुप्रसिद्ध आलोचक वागीश शुक्ल ने अज्ञेय की काव्य-भाषा के संदर्भ में लिखा है- “अज्ञेय की भाषा एक उपलब्धि है- उनके लिए भी उनके पाठक के लिए भी। उनके पास एक अत्यंत समृद्ध सांस्कृतिक अनुभव की पूंजी है, जो उन्हें लोक और शास्त्र, दोनों के अन्वेक्षण से प्राप्त हुई है। यह स्वाभाविक है कि इस अनुभव को वहन करने की समर्थ भाषा की सृष्टि उनकी रचना प्रक्रिया का सर्वाधिक सजग और निपुण पक्ष है।”
अपनी कविता में अज्ञेय पूरी तरह से प्रयोगधर्मी हैं। कविता के आदि से अंत तक शिल्प पर जैसी पकड़ अज्ञेय की है, वैसी अन्य कवियों में नहीं दिखती है। उनकी कविता में शब्द मौन और कोलाहल दोनों के भेद खोलने के लिए तत्पर रहते हैं, बस कोई उनका मूल्यांकन करने का साहस करे। इसमें कोई विवाद नहीं है कि अज्ञेय ने अपनी काव्य-भाषा को हिन्दी साहित्य में बहस और चिंतन का विषय बनाया। भाषा को नए तरीके से समझने की तमाम जिज्ञासा उनकी कविता में अपने पूरे वैभव के साथ मौजूद है। कबीर की ही तरह उनके लिए कविता एक कर्म की तरह है, जो ‘आंखिन देखी’ की पक्षधर है। कबीर जिस “आंखिन देखी” की बात करते हैं, अज्ञेय उसे “अनुभव” तक ले जाते हैं। इसलिए कभी-कभी उनकी कविता में उसकी ही बातों का विरोध भी दिखता है। एक तरफ तो वह लिखते हैं-‘ “मौन भी अभिव्यंजना है” तो वहीं दूसरी तरफ उनकी अभिव्यक्ति की उद्दाम लालसा यह कहने पर भी विवश करती है कि- “है, अभी कुछ और जो कहा नहीं गया।”

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