Monday 5 December 2016

शिवमंगल सिंह सुमन

प्रस्तावना-
यह हार एक विराम है
जीवन महासंग्राम है
तिल-तिल मिटूँगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।
इन दिनों कविता के नाम पर प्रायः चुटकुले और फूहड़ता को ही मंचों पर अधिक स्थान मिल रहा है. यद्यपि श्रेष्ठ काव्य के श्रोताओं की कमी नहीं है, पर फिल्मों और दूरदर्शन के स्तरहीन कार्यक्रमों ने काव्य जैसी दैवी विधा को भी बाजार की वस्तु बना दिया है. वरिष्ठ कवि डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ अपने ओजस्वी स्वर से आजीवन इस प्रवृत्ति के विरुद्ध गरजते रहे!
जीवन परिचय
पांच अगस्त, 1916 को ग्राम झगरपुर (जिला उन्नाव, उ.प्र.) में जन्मे मेधावी छात्र शिवमंगल सिंह ने प्रारम्भिक शिक्षा अपने जन्मक्षेत्र में ही पाकर वर्ष 1937 में ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज से बीए किया. इसके बाद वर्ष 1940 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एमए तथा 1950 में डीलिट की उपाधियां प्राप्त कर उन्होंने अध्यापन को अपनी आजीविका बनाया. वे अच्छे सुघढ़ शरीर के साथ ही तेजस्वी स्वर के भी स्वामी थे. फिर भी उन्होंने अपना उपनाम ‘सुमन’ रखा, जो सुंदरता और कोमलता का प्रतीक है.
जिन दिनों वे ग्वालियर में अध्यापक थे, उन दिनों अटल बिहारी वाजपेयी जी भी वहां पढ़ते थे, जो आगे चलकर देश के प्रधानमंत्री बने. अटल जी स्वयं भी बहुत अच्छे कवि हैं. उन्होंने अपनी कविताओं पर सुमन जी के प्रभाव को कई बार स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है. ग्वालियर के बाद इंदौर और उज्जैन में अध्यापन करते हुए वे विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति बने. स्वाधीनता के संघर्ष में सहभागी बनने के कारण उनके विरुद्ध वारंट भी जारी हुआ. एक बार आंखों पर पट्टी बांधकर उन्हें किसी अज्ञात स्थान पर ले जाया गया. जब पट्टी खोली गयी, तो सामने क्रांतिवीर चंद्रशेखर आजाद खड़े थे. आजाद ने उन्हें एक रिवाल्वर देकर पूछा कि क्या इसे दिल्ली ले जा सकते हो ? सुमन जी ने इसे सहर्ष स्वीकार कर रिवाल्वर दिल्ली पहुंचा दी. सुमन जी का अध्ययन गहन और बहुआयामी था. इसलिए उनके भाषण में तथ्य और तर्क के साथ ही इतिहास और परम्परा का समुचित समन्वय होता था. उन्होंने गद्य और नाटक के क्षेत्र में भी काम किया, पर मूलतः वे कवि थे. जब वे अपने ओजस्वी स्वर से काव्यपाठ करते थे, तो मंच का वातावरण बदल जाता था. वे नये रचनाकारों तथा अपने सहयोगियों की मुक्तकंठ से प्रशंसा करते थे. इस प्रकार उन्होंने कई नये लेखक व कवि तैयार किये.
जिन दिनों सुमन जी युवा थे, उन दिनों वामपंथ की तूती बोल रही थी. अतः वे भी प्रगतिशीलता की इस तथाकथित दौड़ में शामिल हो गये, पर उन्होंने अंतरराष्ट्रीयता के आडम्बर और वाद की गठरी को अपने सिर पर बोझ नहीं बनने दिया. इसलिए उनकी रचनाओं में भारत और भारतीयता के प्रति गौरव की भावना के साथ ही निर्धन और निर्बल वर्ग की पीड़ा सदा मुखर होती थी!
वराष 1956 से 1961 तक नेपाल के भारतीय दूतावास में संस्कृति सचिव रहते हुए उन्होंने नेपाल तथा विश्व के अन्य देशों में भारतीय साहित्य के प्रचार व प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्हें साहित्य अकादमी, पद्मश्री, पद्मभूषण, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार आदि अनेक प्रतिष्ठित सम्मान मिले. वर्ष 1981 से 1983 तक वे ‘उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान’ के उपाध्यक्ष भी रहे!
प्रमुख कृतियाँ-
हिल्लोल, जीवन के गान, प्रलय-सृजन, विश्वास बढ़ता ही गया, पर आंखें नहीं भरीं, विंध्य-हिमालय, मिट्टी की बारात, वाणी की व्यथा, कटे अंगूठों की वंदनवारें उनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं. गद्य में महादेवी की काव्य साधना, गीति काव्य: उद्यम और विकास उल्लेखनीय हैं. प्रकृति पुरुष कालिदास उनका प्रसिद्ध नाटक है. उनकी हर रचना में अनूठी मौलिकता के दर्शन होते हैं.
हिन्दी कविता की वाचिक परंपरा आपकी लोकप्रियता की साक्षी है। देश भर के काव्य-प्रेमियों को अपने गीतों की रवानी से अचंभित कर देने वाले सुमन जी 27 नवंबर सन् 2002 को मौन हो गए। 'सुमन' चाहे कितना ही भौतिक हो, चाक्षुक आनंद देता है लेकिन वह निरंतर गंध में परिवर्तित होते हुए स्मृतियों में समाता है। सुमन अब 'गद्य' में है स्मृतियों में जीवित है। सुमनजी को जिसने भी देखा, सुना है वो अपनी चर्चाओं में, उदाहरण में कभी भी अपनी रचना नहीं सुनाते थे। वे हर अच्छी रचना और हर अच्छे प्रयास के प्रशंसक रहे। अन्य कवियों, लेखकों की रचनाओं की अद्भुत स्मृतियां उनमें जैसे ठसाठस भरी थीं!
कार्यक्षेत्र-
शिवमंगल सिंह 'सुमन' का कार्यक्षेत्र अधिकांशत: शिक्षा जगत से संबद्ध रहा। वे ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में हिंदी के व्याख्याता, माधव महाविद्यालय उज्जैन के प्राचार्य और फिर कुलपति रहे। अध्यापन के अतिरिक्त विभिन्न महत्त्वपूर्ण संस्थाओं और प्रतिष्ठानों से जुड़कर उन्होंने हिंदी साहित्य में श्रीवृद्धि की। सुमन जी प्रिय अध्यापक, कुशल प्रशासक, प्रखर चिंतक और विचारक भी थे। वे साहित्य को बोझ नहीं बनाते, अपनी सहजता में गंभीरता को छिपाए रखते। वह साहित्य प्रेमियों में ही नहीं अपितु सामान्य लोगों में भी बहुत लोकप्रिय थे। शहर में किसी अज्ञात-अजनबी व्यक्ति के लिए रिक्शे वाले को यह बताना काफ़ी था कि उसे सुमन जी के घर जाना है। रिक्शा वाला बिना किसी पूछताछ किए आगंतुक को उनके घर तक छोड़ आता। एक बार सुमन जी कानपुर के एक महाविद्यालय में किसी कार्यक्रम में आए। कार्यक्रम की समाप्ति पर कुछ पत्रकारों ने उन्हे घेर लिया। आयोजकों में से किसी ने कहा सुमन जी थके हैं। इस पर सुमन जी तपाक् से बोले, नहीं मैं थका नहीं हूँ। पत्रकार तत्कालिक साहित्य के निर्माता है। उनसे दो चार पल बात करना अच्छा लगता है। डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' के जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षण वह था जब उनकी आँखों पर पट्टी बांधकर उन्हे एक अज्ञात स्थान पर ले जाया गया। जब आँख की पट्टी खोली गई तो वह हतप्रभ थे। उनके समक्ष स्वतंत्रता संग्राम के महायोद्धा चंद्रशेखर आज़ाद खड़े थे। आज़ाद ने उनसे प्रश्न किया था, क्या यह रिवाल्वर दिल्ली ले जा सकते हो। सुमन जी ने बेहिचक प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। आज़ादी के दीवानों के लिए काम करने के आरोप में उनके विरुद्ध वारंट ज़ारी हुआ। सरल स्वभाव के सुमन जी सदैव अपने प्रशंसकों से कहा करते थे, मैं विद्वान नहीं बन पाया। विद्वता की देहरी भर छू पाया हूँ। प्राध्यापक होने के साथ प्रशासनिक कार्यों के दबाव ने मुझे विद्वान बनने से रोक दिया।
व्यक्तित्व जिन्होंने सुमनजी को सुना है वे जानते हैं कि 'सरस्वती' कैसे बहती है। सरस्वती की गुप्त धारा का वाणी में दिग्दर्शन कैसा होता है। जब वे बोलते थे तो तथ्य, उदाहरण, परंपरा, इतिहास, साहित्य, वर्तमान का इतना जीवंत चित्रण होता था कि श्रोता अपने अंदर आनंद की अनुभूति करते हुए 'ज्ञान' और ज्ञान की 'विमलता' से भरापूरा महसूस करता था। वह अंदर ही अंदर गूंजता रहता था और अनेकानेक अर्थों की 'पोटली' खोलता था। सुमनजी जैसा समृद्ध वक्ता मिलना कठिन है। सुमनजी जितने ऊंचे, पूरे, भव्य व्यक्तित्व के धनी थे, ज्ञान और कवि कर्म में भी वे शिखर पुरुष थे। उनकी ऊंचाई स्वयं की ही नहीं वे अपने आसपास के हर व्यक्ति में ऊँचाइयों, अच्छेपन का, रचनात्मकता का अहसास जगाते थे। उनकी विद्वता आक्रांत नहीं मरती थी। उनकी विद्वता, प्रशिक्षित करते हुए दूसरों में छुपी ज्ञान, रचना, गुणों की खदान से सोने की सिल्लियां भी निकालकर बताते थे कि 'भई ख़ज़ाना तो तुम्हारे पास भरा पड़ा है'। कभी-कभी उनके बारे में कहा जाता था कि सुमनजी तारीफ करने में अति कर जाते थे। जबकि वे तारीफ़ की अति नहीं वरन्‌ उन छुपी हुई रचना समृद्धि की तरफ इशारा करते थे जो आंखों में छुपी होती थी। वे किसी को 'बौना' सिद्ध नहीं करते, उन्होंने सदा सकारात्मकता से हर व्यक्ति, स्थान, लोगों, रचना को देखा। वे मूलतः इंसानी प्रेम, सौहार्द के रचनाकर्मी रहे। वे छोटी-छोटी ईंटों से भव्य इमारत बनाते थे। भव्य इमारत के टुकड़े नहीं करते थे। सामाजिक निर्माण की उनकी गति सकारात्मक, सृजनात्मक ही रही। फिर एक बात है तारीफ़ या प्रशंसा करने के लिए बेहद बड़ा दिल चाहिए, वह सुमनजी में था। वे प्रगतिशील कवि थे। वे वामपंथी थे। लेकिन 'वाद' को 'गठरी' लिए बोझ नहीं बनने दिया। उसे ढोया नहीं, वरन्‌ अपनी जनवादी, जनकल्याण, प्रेम, इंसानी जुड़ाव, रचनात्मक विद्रोह, सृजन से 'वाद' को खंगालते रहे, इसीलिए वे 'जनकवि' हुए वर्ना 'वाद' की बहस और स्थापनाओं में कवि कर्म, उनका मानस, कर्म कहीं क्षतिग्रस्त हो गया होता। सम्मान और पुरस्कार 1974 में 'मिट्टी की बारात' के लिए साहित्य अकादमी, 1993 में 'मिट्टी की बारात' के लिए 'भारत भारती पुरस्कार' से सम्मानित, 1974 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित, 1999 में पद्म भूषण 1958 में देवा पुरस्कार1974 में सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार1993 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा शिखर सम्मान!

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